“जब न्यायालय से शब्दों की मर्यादा टूटती है”,न्याय, धर्म और संवाद की सीमाएँ….।

विशेष रिपोर्ट।
भारत के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने हाल ही में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गवई पर हुए जूता फेंकने की घटना की निंदा तो की, लेकिन साथ ही उन्होंने उस घटना की जड़ में छिपे असंतोष को भी उजागर किया।
काटजू ने कहा कि,
“जस्टिस गवई ने इस घटना को न्योता तब दिया जब उन्होंने खजुराहो में भगवान विष्णु की एक मूर्ति की पुनर्स्थापना को लेकर दायर याचिका पर टिप्पणी की—
‘आप कहते हैं कि आप विष्णु के कट्टर भक्त हैं, तो भगवान से ही कुछ करने के लिए कहिए, जाकर प्रार्थना कीजिए।’”
यह टिप्पणी सुनने में भले व्यंग्य लगे, लेकिन एक न्यायाधीश के पद से यह न्यायिक मर्यादा से परे मानी गई।
काटजू का तर्क था कि न्यायाधीशों को अदालत में कम बोलना चाहिए, और “धर्मोपदेश या प्रवचन” देने से बचना चाहिए।
न्यायालय — धर्मनिरपेक्षता का मंदिर………।
भारतीय संविधान में अदालत को “धर्मनिरपेक्ष न्याय” का प्रतीक माना गया है। अदालत की हर टिप्पणी, हर शब्द, एक सामाजिक संदेश बनता है। ऐसे में जब कोई जज धार्मिक भावनाओं से जुड़े मुद्दे पर व्यंग्यात्मक या उपेक्षापूर्ण टिप्पणी करता है, तो वह न सिर्फ न्यायिक मर्यादा को चोट पहुँचाता है बल्कि लाखों श्रद्धालुओं की संवेदनाओं को भी आहत करता है।
कल्पना कीजिए……।
काटजू ने बहुत तीखा लेकिन सटीक सवाल उठाया है।
“अगर किसी मस्जिद के विध्वंस पर सुनवाई करते हुए कोई जज कहे कि,
‘पैगंबर मोहम्मद से कहो कि उसे फिर से बना दें’
तो क्या तब भी वही शांति बनी रहेगी?”
निश्चित रूप से नहीं।
देशभर में “सर तन से जुदा” जैसे नारे लगेंगे, विरोध होगा, और अदालत की गरिमा खतरे में पड़ जाएगी।
तो फिर जब भगवान विष्णु या हिंदू आस्था पर ऐसी टिप्पणी होती है, तो उस पर संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखाई जाती?
न्याय और संयम — दोनों का संतुलन ज़रूरी……..।
न्यायपालिका समाज की सबसे सम्मानित संस्था है।
लेकिन यह सम्मान केवल पद से नहीं, बल्कि व्यवहार से अर्जित होता है।
अदालतें भावनाओं के नहीं, तथ्यों और कानून के आधार पर निर्णय देती हैं। पर जब जज स्वयं भावनात्मक या कटाक्षपूर्ण टिप्पणी कर दें, तो कानून की साख पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
विरोध, हिंसा नहीं………।
जूता फेंकना गलत था। यह लोकतांत्रिक असहमति की परंपरा नहीं है।
लेकिन उस जूते की उड़ान में एक जन-आक्रोश का प्रतीक भी छिपा है।
जो यह कहता है कि लोग अब न्यायपालिका से तटस्थता की उम्मीद रखते हैं, न कि व्यंग्य की।
न्याय के मंदिर में संयम ही सबसे बड़ा अलंकार है।
जज जब “शब्दों के शस्त्र” चलाते हैं, तो समाज में उसकी गूंज कानून से ज़्यादा गहरी होती है।
मार्कंडेय काटजू ने जो कहा, वह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि,
“क्या अदालतें खुद को जनता से ऊपर मानने लगी हैं? या जनता अब अदालत से जवाब मांगने लगी है?”
“हम सवाल करते है? क्योंकि यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी पूजा है।”
