न्यायपालिका पर उठते सवाल और कोलेजियम सिस्टम की पड़ताल…।

ब्यूरों रिपोर्ट
हाल ही में जस्टिस यशवंत वर्मा से जुड़े मामले के बाद सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति और कार्यशैली पर सवाल उठ रहे हैं। न्यायपालिका, जो संविधान के तीसरे स्तंभ के रूप में मानी जाती है, पर भरोसा बनाए रखना बेहद जरूरी है, लेकिन जब खुद न्यायिक प्रक्रिया पर संदेह उत्पन्न होता है, तो यह लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय बन जाता है।
जस्टिस यशवंत वर्मा मामला: न्यायपालिका की पारदर्शिता पर सवाल…..
दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा को लेकर हुए विवाद ने जजों की जवाबदेही और नियुक्ति प्रक्रिया पर फिर से बहस छेड़ दी है। इस मामले में आरोप यह है कि जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है। राजनीतिक दल और कई कानूनी विशेषज्ञ इसे न्यायपालिका की गिरती साख से जोड़ रहे हैं।
कोलेजियम सिस्टम: क्या यह पारदर्शी है?
भारत में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति कोलेजियम सिस्टम के तहत होती है। यह प्रणाली 1993 में लागू हुई थी। इस सिस्टम के तहत सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज मिलकर अन्य जजों की नियुक्ति और पदोन्नति का निर्णय लेते हैं। सरकार का इसमें सीधा हस्तक्षेप नहीं होता।
हालांकि, इस प्रणाली की सबसे बड़ी आलोचना इसकी पारदर्शिता की कमी और आंतरिक भाई-भतीजावाद (नेपोटिज़्म) को लेकर की जाती है। इसके प्रमुख दोष इस प्रकार हैं:
पारदर्शिता की कमी – कोलेजियम की सिफारिशें सार्वजनिक नहीं की जातीं और नियुक्ति प्रक्रिया में आम जनता या सरकार की भूमिका नहीं होती।
जवाबदेही का अभाव – अगर कोई गलत निर्णय होता है, तो उसकी जवाबदेही तय करने का कोई ठोस तंत्र नहीं है।
नेपोटिज़्म और पूर्वाग्रह – अकसर आरोप लगते हैं कि जज अपने करीबी लोगों को ही पदोन्नति देते हैं।
सरकारी हस्तक्षेप का अभाव – कार्यपालिका को पूरी तरह बाहर रखने से संतुलन का अभाव हो जाता है।
सुधार की जरूरत: क्या NJAC बेहतर विकल्प था?
2014 में मोदी सरकार ने कोलेजियम सिस्टम को बदलने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) कानून लाया था, जिसमें न्यायपालिका के साथ कार्यपालिका को भी नियुक्तियों में भूमिका दी गई थी। लेकिन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया था।
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि NJAC जैसी कोई संशोधित प्रणाली लागू होनी चाहिए, जिससे नियुक्तियों में सरकार और अन्य स्वतंत्र निकायों की भी भूमिका हो।
जस्टिस यशवंत वर्मा का मामला एक संकेत है कि भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और पारदर्शिता के बीच संतुलन बनाए रखने की जरूरत है। कोलेजियम सिस्टम पर लगातार सवाल उठ रहे हैं, और इसे पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिए सुधार की आवश्यकता है। लोकतंत्र में न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनाए रखना जरूरी है, और इसके लिए सरकार, न्यायपालिका और जनता—सभी को साथ मिलकर काम करना होगा।