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न्यायपालिका और सनातन आस्था का उपहास- एक गंभीर प्रश्न…….।

ब्यूरों रिपोर्ट,

भारत का संविधान हर नागरिक को समान अधिकार देता है। संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का पालन, प्रचार और आचरण करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। यही अनुच्छेद भारत को धार्मिक सहिष्णुता और विविधता की शक्ति भी देता है। लेकिन जब न्याय की सर्वोच्च संस्था से ऐसे शब्द सुनाई दें, जो किसी एक धर्म की आस्था का उपहास करते हों, तो यह सवाल खड़ा होता है कि क्या न्यायपालिका सचमुच सबके लिए समान दृष्टि रखती है?

हाल ही में मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिया गया यह कथन कि, “जाइए और भगवान विष्णु से ही कुछ करवा लीजिए” करोड़ों सनातन अनुयायियों की भावनाओं पर गहरी चोट है। न्याय की कुर्सी से जब आस्था का मज़ाक बनाया जाता है, तो यह केवल एक व्यक्ति की टिप्पणी नहीं रह जाती, बल्कि न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है।

दोहरी संवेदनशीलता का सवाल……..।

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि जब भी किसी अन्य धर्म से जुड़े मामलों में अदालत के सामने सवाल आता है, तो वहाँ संवेदनशीलता और सतर्कता बरती जाती है। लेकिन जब बात सनातन धर्म से जुड़ी होती है, तो अक्सर मज़ाक, तंज या उपेक्षा देखने को मिलती है। यही दोहरा रवैया करोड़ों हिन्दुओं के मन में असंतोष पैदा करता है।

क्या आस्था का सम्मान केवल कुछ धर्मों तक सीमित है?…….

क्या हिन्दू देवी-देवताओं पर टिप्पणी करना आसान और “सुरक्षित” समझा जाता है?

क्यों न्यायपालिका का मौन दूसरे धर्मों के मामलों में संवेदनशीलता कहलाता है और सनातन पर टिप्पणी “स्वतंत्रता” के नाम पर जायज़ ठहराई जाती है?

न्यायपालिका की जिम्मेदारी……..।

न्यायपालिका केवल कानून की व्याख्या करने वाली संस्था नहीं है, बल्कि यह संविधान की आत्मा और नागरिकों की उम्मीदों की रक्षक भी है। जब न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी है, तो उसे धर्म, मज़हब या जाति का फर्क नहीं दिखना चाहिए। परंतु वास्तविकता यह है कि सनातन धर्म के संदर्भ में अक्सर उपहासजनक टिप्पणियाँ सामने आती हैं, जबकि अन्य धर्मों पर बोलने से परहेज़ किया जाता है।

सनातन धर्म, भारत की आत्मा…..।

सनातन धर्म कोई “पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन” नहीं है, बल्कि भारत की आत्मा है। यह धर्म केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन जीने की पद्धति है। ऐसे में यदि न्यायपालिका ही इस आस्था का सम्मान करना भूल जाए, तो न्याय की नींव कमजोर हो जाती है।

भारत की न्यायपालिका को यह याद रखना होगा कि वह केवल कानून की व्याख्या करने वाली संस्था नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की उम्मीदों का स्तंभ है। आस्था और श्रद्धा का सम्मान करना उसका कर्तव्य है। यदि न्यायपालिका ही किसी धर्म की भावनाओं को आहत करने लगे, तो यह न केवल अनुचित है बल्कि अस्वीकार्य भी।

न्यायपालिका से अपेक्षा है कि वह धर्म के मामले में समानता और निष्पक्षता बरते। क्योंकि जब न्याय ही आस्था का उपहास करने लगेगा, तो न्याय की इमारत खोखली हो जाएगी।

जय श्री विष्णु।

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