खेल के पीछे छिपी ताक़तें:- SIR, सुप्रीम कोर्ट और घुसपैठ की राजनीति…..।

ब्यूरों रिपोर्ट, विक्रम सिंह।
भारत की बदलती डेमोग्रैफी (जनसांख्यिकी) अब सिर्फ़ एक सामाजिक चिंता नहीं रही, बल्कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा और आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व से जुड़ा गंभीर सवाल बन चुकी है। राजनीतिक दल खुलेआम घुसपैठियों को वोट बैंक मानकर उनके साथ खड़े हो रहे हैं। यही वोटर अब न सिर्फ़ स्थानीय रोज़गार और संसाधनों पर डाका डाल रहे हैं, बल्कि भविष्य के चुनाव परिणामों को भी प्रभावित करने लगे हैं।
बिहार का SIR और 65 लाख वोटरों का सवाल…..।
निर्वाचन आयोग ने बिहार में SIR (Special Intensive Revision) प्रक्रिया के तहत मतदाता सूची की गहन समीक्षा शुरू की। इसी प्रक्रिया में लगभग 65 लाख नाम वोटर लिस्ट से हटाए गए, जिन्हें अवैध या संदिग्ध माना गया। यह कदम भारत की चुनावी पारदर्शिता और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बेहद ज़रूरी था।
लेकिन यहीं से शुरू होता है असली खेल।
सुप्रीम कोर्ट का यू-टर्न?……
12 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा कि आधार कार्ड और वोटर आईडी नागरिकता का सबूत नहीं हैं। यह एक सख़्त और तार्किक फैसला था।
लेकिन सिर्फ़ दस दिन बाद, वही सुप्रीम कोर्ट, वही जज, अचानक फैसला पलटते हुए कहते हैं कि आधार और वोटर आईडी को नागरिकता का वैध दस्तावेज़ माना जा सकता है।
सवाल उठता है कि दस दिन में ऐसा क्या बदल गया? कौन सी ताक़तें थीं, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट तक को अपने फैसले बदलने पर मजबूर कर दिया?
ये बदलाव संयोग है या साज़िश?…..
क्या यह सिर्फ़ कानूनी व्याख्या का अंतर है, या फिर किसी अदृश्य दबाव और सौदेबाज़ी का नतीजा?
क्या यह वही अंतरराष्ट्रीय खेल नहीं है, जिसमें घुसपैठियों को भारत में स्थायी बनाने और उन्हें वोट का अधिकार देने की साज़िश बुनी जा रही है?
अगर सुप्रीम कोर्ट ही अपने फैसले दस दिन में पलटेगा तो जनता किस पर भरोसा करेगी?
कठपुतलियां और असली खिलाड़ी……।
राजनीतिक दलों के नेता, जो घुसपैठियों के वोट बैंक के लिए लालायित हैं, असल में इस खेल की कठपुतलियां हैं। असली खेल कोई और खेल रहा है।
अंतरराष्ट्रीय ताक़तें, जिन्हें भारत की स्थिरता और लोकतंत्र से डर है।
पैसा और वोट की राजनीति, जो न्यायपालिका तक को प्रभावित करने लगी है।
जनता के लिए चेतावनी……।
अगर यही हाल रहा, तो आने वाले समय में,
घुसपैठिए न सिर्फ़ वैध वोटर बन जाएंगे, बल्कि नीतियों और सरकारों पर भी क़ब्ज़ा कर लेंगे।
असली नागरिकों के रोज़गार, शिक्षा और संसाधन पर लगातार हमला होगा।
भारत की राष्ट्रीय पहचान और लोकतांत्रिक संरचना ही खतरे में पड़ जाएगी।
यह मामला सिर्फ़ बिहार या 65 लाख वोटरों तक सीमित नहीं है। यह इस बात का संकेत है कि भारत की न्यायपालिका, राजनीति और चुनावी प्रक्रिया तक में कैसी ताक़तें हस्तक्षेप कर रही हैं। जब सुप्रीम कोर्ट दस दिन में अपने ही फैसले पर पलटी मार सकता है, तो यह सिर्फ़ कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक खतरनाक साज़िश का हिस्सा है।
अब सवाल जनता से है कि,
क्या आप चुप रहकर अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य दांव पर लगने देंगे?
या फिर इस साज़िश को पहचानकर देश को बचाने की आवाज़ बनेंगे?