देश

सनातन का अपमान: जब न्याय और निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं……।

ब्यूरों रिपोर्ट

भारत की पहचान उसकी विविधता में है। यहाँ हर धर्म, हर परंपरा और हर विचारधारा को जीने की आज़ादी है। यही संवैधानिक आत्मा हमारी सबसे बड़ी ताकत है। लेकिन सवाल तब उठता है जब उसी विविधता के नाम पर, एक धर्म विशेष सनातन धर्म- का उपहास, अपमान और अपमानजनक व्याख्या “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” की आड़ में जायज़ ठहरा दी जाती है।

न्यायपालिका की भूमिका- दो तराज़ू, एक न्याय?……

अक्टूबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था। “हेट स्पीच पर पुलिस शिकायत का इंतज़ार न करे, खुद से (suo motu) कार्रवाई करे।”
यह आदेश अपने आप में सख़्त और साफ़ था। कोई भी भाषण जो नफ़रत फैलाए, धर्म के नाम पर समाज को बाँटे, उस पर कानून तत्काल कार्रवाई करे।

मगर वही सख़्ती तब क्यों गायब हो जाती है जब किसी मंच से सनातन धर्म या उसके देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक व्यंग्य किए जाते हैं?
डीएमके जैसे दलों के कई नेताओं ने सार्वजनिक रूप से हिंदू परंपराओं पर अपमानजनक टिप्पणियाँ कीं, सनातन धर्म को डेंगू ,एड्स और उसके समूलनाश की बातें कहीं गई और इसे बाद में “freedom of expression” कहकर उनका बचाव किया गया।

क्या यही समान न्याय है?
क्या न्याय का तराज़ू वक्ता की राजनीतिक पहचान देखकर झुकने लगा है?

नुपुर शर्मा प्रकरण- अभिव्यक्ति या अपराध?…..

जून 2022 में नुपुर शर्मा ने टीवी डिबेट में कुरान के एक संदर्भ का ज़िक्र किया। प्रतिक्रिया स्वरूप देशभर में हिंसा, आगजनी और उनके खिलाफ दर्जनों FIR हुईं।
सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका ठुकराते हुए कहा कि, “उनके बयान ने पूरे देश में आग लगा दी।”

प्रश्न यह नहीं कि उन्होंने क्या कहा, बल्कि यह कि क्या न्याय का दृष्टिकोण हर धर्म के लिए एक समान है?
अगर एक धर्म पर सवाल उठाना अपराध है, तो दूसरे धर्म का अपमान “स्वतंत्रता” कैसे बन जाता है?

स्मारकों की असमान सुरक्षा- विष्णु मंदिर बनाम दरगाह……।

दिल्ली के मेहरौली क्षेत्र में दरगाहों की मरम्मत के लिए ASI को विशेष दिशा-निर्देश दिए जाते हैं।
लेकिन जब खजुराहों जैसे ऐतिहासिक मंदिरों की मूर्तियों या पूजा स्थलों की रक्षा की बात आती है, तो वही न्यायालय “publicity interest” या “technical grounds” का हवाला देकर याचिका खारिज कर देता है।
विष्णु मूर्ति पर सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता का मज़ाक उड़ाना क्या न्याय की गरिमा के अनुरूप था?

सनातन- सहिष्णु, पर मौन नहीं……..।

सनातन धर्म कभी कट्टर नहीं रहा। उसकी जड़ें सहिष्णुता, प्रेम और समरसता में हैं। लेकिन यह भी सच है कि सहिष्णुता को कमजोरी समझना सबसे बड़ी मूर्खता है।
जब भगवानों का उपहास खुले मंच से होता है, जब पूजा-पद्धतियों को “प्राचीन अंधविश्वास” कहा जाता है, और जब न्यायपालिका व मीडिया इसे “स्वतंत्रता” कहकर टाल देते हैं। तब यह केवल धर्म का नहीं, संविधान की आत्मा का भी अपमान है।

मीडिया और मंच- क्या बिक चुकी है संवेदनशीलता?…

आज मीडिया विवाद बेचता है, विचार नहीं।
जहाँ रेटिंग बढ़ती है, वहीं “सनातन बनाम सेक्युलर” की स्क्रिप्ट रची जाती है।
लेकिन मीडिया भूल जाता है कि उसके शब्द समाज की दिशा तय करते हैं। अगर वे शब्द ही विभाजन बोएँगे, तो लोकतंत्र का क्या बचेगा?

अब सवाल सनातन से नहीं- न्याय से है……..।

क्या न्यायपालिका इस देश में सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखती है?
क्या “हेट स्पीच” केवल तब होती है जब एक वर्ग आहत हो, और तब नहीं जब सनातन पर प्रहार हो?
कब तक “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का आवरण सनातन की गरिमा को ढकता रहेगा?

भारत की आत्मा सनातन में बसती है। उसकी संस्कृति, उसके विचार, उसकी समरसता में।
इसलिए आवश्यक है कि न्यायपालिका न्याय के साथ-साथ निष्पक्षता भी दिखाए।
मीडिया विवाद नहीं, विवेक बेचे।
और समाज यह समझे कि धर्म का अपमान “आधुनिकता” नहीं, असभ्यता है।

सनातन का मज़ाक उड़ाना आसान है,
पर उस सनातन की ताकत को समझना कठिन,
जिसने हजारों वर्षों से इस भूमि को सहिष्णु रखा है,
और जो आज भी कहता है।
“सर्व धर्म समभाव।”

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