उत्तराखंड

उत्तराखंड़- कब तक सरकार की नाकामी की भेंट चढ़ते रहेंगे मासूम जीवन?…..

ब्यूरों रिपोर्ट,

उत्तराखंड आज आपदाओं की चपेट में कराह रहा है। कभी बादल फटने से गांव उजड़ जाते हैं, कभी भूस्खलन से सड़कें और पुल बह जाते हैं, तो कभी नदियाँ अपने रौद्र रूप में सबकुछ निगल जाती हैं। हर आपदा के बाद सरकार की मशीनरी, नेताओं के दौरे और राहत की घोषणाएं, यह सब एक तयशुदा स्क्रिप्ट की तरह बार-बार दोहराया जाता है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या सरकार सच में आपदा से निपटने को तैयार है, या केवल फोटो खिंचवाने और बयान देने तक सीमित है?

आपदा का असली कारण, सरकार की लापरवाही…..।

उत्तराखंड की भौगोलिक संवेदनशीलता जगजाहिर है। लेकिन इसके बावजूद सरकारों ने अंधाधुंध सड़क निर्माण, हाइड्रो प्रोजेक्ट, सुरंग और बांध निर्माण कर राज्य को आपदाओं की प्रयोगशाला बना दिया है। जंगल काट दिए गए, नदियों का प्रवाह बिगाड़ दिया गया और पहाड़ों को खोखला कर दिया गया। नतीजा यह कि थोड़ी-सी बारिश भी तबाही का कारण बन जाती है। सवाल उठता है कि क्या यह आपदा वास्तव में प्राकृतिक है या फिर विकास की आड़ में किए जा रहे अपराधों का परिणाम?

जनजीवन तबाह, सरकार लापता…….।

आपदा आते ही सबसे पहले आम लोग तबाह होते हैं। उनके घर बह जाते हैं, खेत मलबे में दब जाते हैं और परिवार उजड़ जाते हैं। लेकिन सरकार कहाँ होती है? राहत और बचाव के नाम पर जो दिखता है, वह सिर्फ़ ढोंग है। पीड़ितों को घंटों-घंटों मदद का इंतज़ार करना पड़ता है। मुख्यमंत्री और मंत्री घटनास्थल पर पहुँचते हैं, बयानबाज़ी करते हैं, कैमरों के सामने पीड़ितों को सांत्वना देते हैं, और फिर चले जाते हैं। हकीकत यह है कि सरकार आपदा के समय हमेशा “लापता” रहती है।

मुआवजा, पीड़ितों के साथ मज़ाक…….।

सबसे बड़ा सवाल मुआवज़े का है। जिन परिवारों ने अपना सबकुछ खो दिया, उन्हें सरकार कुछ हजार रुपये थमा कर चुप करा देना चाहती है। यह मुआवज़ा नहीं, बल्कि मज़ाक है। और इन पैसों के लिए भी प्रभावितों को महीनों तक सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं।
क्यों? क्योंकि सरकार के पास न तो कोई स्पष्ट नीति है और न ही पारदर्शी व्यवस्था। यदि कोई नीति है भी, तो वह इतनी जटिल और कागजी है कि आम लोग उसमें उलझकर रह जाते हैं।

सरकार से सीधे सवाल…….।

क्यों हर आपदा के बाद वही बयानबाज़ी और खोखले वादे सुनने को मिलते हैं?

क्यों आज तक राज्य के लिए स्पष्ट और ठोस आपदा प्रबंधन नीति नहीं बनाई गई?

क्यों आपदा प्रभावित परिवारों को तुरंत और सम्मानजनक मुआवजा देने की व्यवस्था नहीं है?

क्यों विकास के नाम पर पहाड़ों को खोखला किया जा रहा है और आपदा को न्योता दिया जा रहा है?

आखिर कब तक उत्तराखंड की मासूम जनता सरकार की नाकामी की कीमत अपनी जान देकर चुकाएगी?

समाधान अब नहीं, तुरंत चाहिए……।

1. आपदा प्रभावितों को तुरंत और सम्मानजनक मुआवजा, बिना कागजी झंझट।

2. संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण कार्य पर तत्काल रोक और वैज्ञानिक आकलन।

3. पारदर्शी आपदा प्रबंधन नीति, जिसमें प्रभावितों के लिए तय समयसीमा में मदद सुनिश्चित हो।

4. स्थानीय युवाओं और गांवों को आपदा प्रबंधन की मुख्य धुरी बनाना।

5. पर्यावरण और पहाड़ों के संरक्षण को विकास से भी बड़ी प्राथमिकता देना।

उत्तराखंड की जनता यह पूछ रही है कि सरकार कब तक हमें मरता देखती रहेगी? क्या हमारी जान की कोई कीमत नहीं है? यह देवभूमि बार-बार आपदाओं में डूब रही है और सरकार अभी भी बयानबाज़ी से आगे नहीं बढ़ पा रही। अब वक्त आ गया है कि सत्ता में बैठे लोग ज़मीन पर उतरकर असली काम करें। वरना इतिहास गवाह रहेगा कि जब देवभूमि जल रही थी, तब सरकार केवल भाषण दे रही थी।

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