उत्तराखंड

वक़्फ़ बोर्ड की 9 लाख संपत्तियाँ: दावा बनाम सच्चाई दस्तावेज़ों की कसौटी पर खरा उतरता सच…..।

ब्यूरों रिपोर्ट

सालों से देश को एक ही बात बताई जाती रही कि
भारत में वक़्फ़ बोर्ड के पास 9 लाख से ज़्यादा संपत्तियाँ हैं।
यहाँ तक कहा गया कि वक़्फ़ बोर्ड देश का सबसे बड़ा ज़मीन मालिक संस्थान है।

लेकिन जब मोदी सरकार ने UMEED पोर्टल के ज़रिये एक सीधा और सरल सवाल पूछा?
“सभी वक़्फ़ संपत्तियों के वैध दस्तावेज़ ऑनलाइन जमा करो”
तो कहानी अचानक बदल गई।

सच्चाई क्या निकली?………।

दावा,
9 लाख वक़्फ़ संपत्तियाँ, सब वैध और पंजीकृत।

हक़ीक़त,
पूरे देश में सिर्फ़ 1.7 से 2.1 लाख संपत्तियों के ही पूरे दस्तावेज़ सामने आ पाए।
यानि करीब 72% संपत्तियों का कोई ठोस रिकॉर्ड ही मौजूद नहीं।

अब सवाल सिर्फ़ बड़ा नहीं, बल्कि गंभीर है।

बाक़ी ज़मीन कहाँ है?….

क्या वो सच में कभी वक़्फ़ को दान दी गई थी?
या फिर दशकों से “वक़्फ़” के नाम पर ज़मीनों पर क़ब्ज़ा चलता रहा?

सरकार और सुप्रीम कोर्ट का रुख़…….।

सरकार ने समय सीमा तय की।
मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा।
लेकिन कोर्ट ने विस्तार देने से साफ़ इनकार कर दिया।

साफ़ संदेश दिया गया कि,
“पारदर्शिता अब कोई विकल्प नहीं, यह क़ानूनी बाध्यता है।”

राज्यों की ज़मीनी हक़ीक़त………..।

कर्नाटक जैसे राज्यों ने रिकॉर्ड डिजिटाइज़ कर दिए।

पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में 1% से भी कम संपत्तियाँ दर्ज हो पाईं।

इसका मतलब साफ़ है,
कहीं तकनीकी समस्या थी,
तो कहीं क़ानून मानने से सीधा इनकार।

अब आगे क्या?………

जो संपत्तियाँ अपंजीकृत हैं, वे जाएँगी वक़्फ़ ट्रिब्यूनल।

जो वैध साबित नहीं होंगी,
सरकार उन्हें अपने नियंत्रण में ले सकती है।

यानि अब दावों का दौर खत्म
दस्तावेज़ों का दौर शुरू….।

“राज्य के भीतर राज्य” का अंत?…

वक़्फ़ बोर्ड को वर्षों तक एक ऐसे ढाँचे की तरह पेश किया गया,
जहाँ सवाल पूछना भी गुनाह था।

लेकिन अब तस्वीर बदल रही है।

यह लड़ाई किसी धर्म के ख़िलाफ़ नहीं है।
यह सवाल है।

क़ानून का,

पारदर्शिता का,

और देश की ज़मीन पर देश के नागरिकों के हक़ का।

आख़िरी सवाल…….।

अगर 9 लाख का दावा था,
तो 7 लाख संपत्तियों के काग़ज़ कहाँ हैं?

अब फैसला आपके हाथ में है।
सवाल पूछेंगे, या फिर चुप रहेंगे?

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