उत्तराखंड

“उत्तराखंड @25 : एक तरफ़ जश्न, दूसरी तरफ़ गिरफ्तारी – ये कैसी विकास गाथा?”……

ब्यूरों रिपोर्ट

25 साल का सफ़र किसी राज्य के लिए यह उम्र जवानी की होती है। उम्मीदों, संभावनाओं और उपलब्धियों का वक्त।
लेकिन आज जब उत्तराखंड विधानसभा में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू राज्य की विकास गाथा सुना रही थीं, उसी वक्त राजधानी के बाहर लोकतंत्र की आवाज़ को पुलिस के डंडों ने घेर रखा था।

चौखुटिया से 300 किलोमीटर की पदयात्रा कर आए आंदोलनकारी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए देहरादून पहुंचे, मगर उन्हें शहर में घुसने तक नहीं दिया गया। गांधी पार्क जाने की कोशिश में उन्हें हिरासत में ले लिया गया।
ये तस्वीर किसी लोकतांत्रिक राज्य की नहीं, बल्कि उस राज्य की है जो 25 साल बाद भी अपने लोगों से संवाद करने से डरता है।

सरकार की विकास गाथा बनाम जनता का दर्द…….।

विधानसभा के भीतर रोशनी, सम्मान और भाषणों की गूंज थी, “उत्तराखंड आगे बढ़ रहा है।”
पर बाहर सड़कों पर वही पुराना सवाल गूंज रहा था कि,
“हमारे गांवों में डॉक्टर कब आएंगे? एंबुलेंस कब पहुंचेगी? अस्पताल कब खुलेगा?”

अगर यह 25 साल की विकास यात्रा है, तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि इस सफर में आम जनता पीछे छूट गई है।

भुवन कापड़ी का प्रहार: “जवान हुआ तो सिर्फ़ भ्रष्टाचार”……।

विशेष सत्र में कांग्रेस विधायक दल के उप नेता भुवन कापड़ी ने जो कहा, उसने विधानसभा की चमकदार दीवारों के भीतर की सच्चाई उघाड़ दी।

“25 साल में अगर कोई जवान हुआ है तो वो भ्रष्टाचार है। विधायक निधि से पहले ही 15% अधिकारी काट लेते हैं।”
यह बयान महज़ एक आरोप नहीं, बल्कि राज्य की नाकामी की खुली किताब है।
जब विधायक ही मान रहे हैं कि योजनाओं के पैसे जनता तक पूरे नहीं पहुँचते, तो सवाल उठता है —
फिर विकास की यह गाथा किसके लिए लिखी जा रही है?

लोकतंत्र की असली परीक्षा………..।

आंदोलनकारियों को रोकना, उनकी आवाज़ दबाना या उन्हें हिरासत में लेना यह किसी सरकार की ताकत नहीं, उसकी कमजोरी का प्रतीक है।
संविधान ने बातचीत का रास्ता दिया है, टकराव का नहीं।
और अगर सरकार संवाद से भी भागेगी, तो फिर जनता सड़क पर उतरेगी ही।
“क्योंकि आवाज़ को कैद नहीं किया जा सकता”

उत्तराखंड को आईना दिखाने का वक्त………।।

25 साल पहले उत्तराखंड इसलिए बना था कि पहाड़ों की आवाज़ दिल्ली तक पहुँचे।
मगर आज लगता है कि देहरादून से भी आवाज़ सचिवालय तक नहीं पहुँच पा रही है।
गांवों की सड़कें अब भी टूटी हैं, अस्पताल खाली हैं, नौजवान पलायन कर रहे हैं, और सरकार “विकास” का उत्सव मना रही है।

यह वक्त जश्न का नहीं, जवाबदेही का है।
जनता जानना चाहती है कि,

25 साल में पहाड़ों के अस्पतालों का क्या हुआ?

योजनाओं की राशि कहाँ गई?

और आखिर सरकार कब तक “विकास के भाषणों” से वास्तविक समस्याओं को ढकेगी?

उत्तराखंड को जश्न नहीं, ईमानदार आत्ममंथन की जरूरत है।
क्योंकि सच्चा विकास तभी होगा,
जब राष्ट्रपति की सभा के बाहर की भीड़ को संविधान का सम्मान मिलेगा,
न कि हिरासत की ठंडी दीवारें।

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