उत्तराखंड

“उत्तराखंड @25: पहाड़ की रजत जयंती या सुनसान होती आत्मा?”…..

ब्यूरों रिपोर्ट

25 साल — एक राज्य के लिए बहुत बड़ा वक्त होता है।
2000 में जब उत्तराखंड बना था, तब कहा गया था “अब पहाड़ों की आवाज़ दिल्ली तक पहुँचेगी।”
आज 2025 में, जब राज्य अपनी रजत जयंती मना रहा है, तो सवाल उठता है कि क्या वो आवाज़ सच में कहीं पहुँची?

पहाड़ के नाम पर बना राज्य, मगर विकास मैदान में सिमटा…….।

उत्तराखंड का सपना था। “अपने पहाड़ों के विकास का।”
लेकिन हुआ इसका उल्टा।
जो सरकार भी आई, योजनाओं का अंबार लगा दिया, फाइलें मोटी होती गईं, पर पहाड़ की ज़िंदगी वहीं की वहीं रह गई।

देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी, रुद्रपुर — इन शहरों ने विकास के नाम पर ऊँची इमारतें पा लीं, लेकिन पहाड़ों के गांव खाली, घर टूटे, मकान और बंजर खेतों के प्रतीक बन गए।

जहाँ डॉक्टर नहीं जाते, वहाँ मरीज भगवान भरोसे…..।

पहाड़ के अस्पताल आज भी दवाओं और डॉक्टरों के बिना पड़े हैं।
गर्भवती महिलाओं को आज भी खच्चरों और डांडियों पर ढोकर सड़कों तक लाया जाता है।
सरकारें हर बार “स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार” की बात करती हैं, लेकिन असल में पहाड़ का स्वास्थ्य सिस्टम कोमा में है।

शिक्षा की रीढ़ भी टूटी हुई है……….।

स्कूलों में ताले लटके हैं, टीचर मैदानों में ड्यूटी लगा रहे हैं।
जहाँ कभी बच्चे पहाड़ों के भविष्य थे, वहाँ अब सिर्फ जंगली झाड़ियाँ उग आई हैं।
“ऑनलाइन शिक्षा” के नाम पर दिखावे तो खूब हुए, लेकिन सच्चाई यह है कि पहाड़ का बच्चा आज भी सिग्नल खोजता फिरता है।

पलायन: जो ‘संकट’ था, अब ‘सच्चाई’ बन गया है……।

पलायन पर चिंतन हुआ, सम्मेलन हुए, भाषण गूंजे पर कोई योजना नहीं बनी जो लोगों को गांव में रोके।
आज स्थिति यह है कि उत्तराखंड के 4,000 से ज़्यादा गांव आंशिक या पूर्ण रूप से खाली हो चुके हैं।
जिन घरों में शाम को दीपक जलते थे, वहाँ अब अंधेरा और सन्नाटा बोलता है।

अब जंगलों में इंसान नहीं, इंसानों पर जंगल हावी हैं….।

गांव सूने हुए तो जंगली जानवरों का आतंक बढ़ गया।
फसलें बर्बाद, मवेशी मारे गए, और अब इंसान भी असुरक्षित हैं।
2025 में ही तेंदुए और बाघों के हमलों में दर्जनों लोगों की जान चली गई।
मनवर सिंह बिष्ट जैसे किसान, जो हल चलाते थे। अब खुद गुलदार का शिकार बन रहे हैं।

ये सिर्फ किसी एक गांव की कहानी नहीं, बल्कि पूरे उत्तराखंड के गांवों की चीख है, जो सरकार के बंद कानों तक नहीं पहुँच पा रही।

सरकारें आईं, घोषणाएँ हुईं — मगर हालात जस के तस……।

हर सरकार ने “पहाड़ के विकास” का राग तो जरूर छेड़ा,
पर उसके लिए कभी ठोस, दीर्घकालिक योजना नहीं बनी।
जो योजनाएँ बनीं, वे फाइलों, विज्ञापनों और भाषणों तक सीमित रह गईं।
पहाड़ की असली जरूरतें सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और सुरक्षा अब भी अधूरी हैं।

मुख्यमंत्री धामी जी, यह ‘रजत जयंती’ नहीं ‘चेतावनी का क्षण’ है…….।

अब वक्त है कि आप यह समझें कि पहाड़ की जमीन सिर्फ मिट्टी नहीं है, यह लोगों की जड़ है।
अगर यही जड़ सूख गई, तो उत्तराखंड का अस्तित्व सिर्फ नाम का रह जाएगा।

पहाड़ों में डॉक्टर भेजिए,

शिक्षकों की जवाबदेही तय कीजिए,

फसल सुरक्षा और मानव सुरक्षा के लिए नीति बनाइए,

पलायन को रोकने के लिए रोजगार को गांव तक लाइए।

राज्य को “विकास पर्व” की नहीं, “जागरण यात्रा” की जरूरत है। ऐसी यात्रा, जो देहरादून से नहीं, गांव की चौपाल से शुरू हो।

25 साल बाद भी पहाड़ पूछ रहा है कि,

“क्या मैं सिर्फ वोट का इलाका हूँ या इस राज्य का असली चेहरा?”

सरकार अगर अब भी नहीं जागी, तो आने वाले 25 सालों में शायद पहाड़ नहीं, सिर्फ उसका इतिहास बचा रहेगा।

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