उत्तराखंड

चौखुटिया आंदोलन: धामी सरकार की स्वास्थ्य नीतियों की पोल खोलने वाला आईना……।

ब्यूरों रिपोर्ट

चौखुटिया (अल्मोड़ा) – पहाड़ की शांत वादियों में उठ रही महिलाओं और बुजुर्गों की आवाज अब पूरे उत्तराखंड की पुकार बन चुकी है। ‘ऑपरेशन स्वास्थ्य’ के नाम पर चल रहा चौखुटिया आंदोलन केवल एक स्थानीय विरोध नहीं, बल्कि धामी सरकार की स्वास्थ्य नीतियों पर जनता का सीधा अविश्वास है।
देहरादून तक पैदल मार्च करती महिलाएं जब कहती हैं “हमें बस इलाज चाहिए”, तो यह सवाल उठता है कि आखिर राज्य का ₹4,748 करोड़ का स्वास्थ्य बजट कहां गायब हो गया?

1. बजट बना शोपीस, मरीज बना हेडलाइन………।

धामी सरकार हर साल स्वास्थ्य पर करोड़ों खर्च का दावा करती है, लेकिन चौखुटिया, बागेश्वर और पिथौरागढ़ जैसे पहाड़ी इलाकों में अस्पताल अब भी डॉक्टर, दवा और उपकरणों से खाली हैं।
14 माह के शिवांश जोशी की मौत इसका सबसे दर्दनाक उदाहरण है—कुमाऊं के चार जिलों में घुमाया गया बच्चा आखिरकार इलाज से पहले ही दम तोड़ गया।
मुख्यमंत्री ने जांच के आदेश दिए, मगर सवाल यह है:
क्या जांच से टूटा रेफरल सिस्टम सुधर जाएगा?
क्या ग्रामीण इलाकों में एम्बुलेंस और विशेषज्ञ डॉक्टर पहुंचेंगे?

तीन साल में प्रचार पर ₹1,000 करोड़, पर अस्पतालों में मांएं अब भी फर्श पर बच्चों को जन्म देने को मजबूर हैं। यह शासन नहीं, संवेदना की हत्या है।

2. कुमाऊं-गढ़वाल का असंतुलन: राज्य के भीतर ‘दो उत्तराखंड’………।

उत्तराखंड का असली संकट आर्थिक नहीं, संवेदनात्मक असमानता है।
कुमाऊं के सीएचसी अधूरे हैं, तो गढ़वाल में हाल और बदतर, जहां सड़क भी नहीं, वहां स्वास्थ्य केंद्र का नाम सिर्फ बोर्ड पर है।
देहरादून-हरिद्वार के अस्पतालों में रोशनी है, पर चमोली-रुद्रप्रयाग के गांव अंधेरे में हैं।
‘वाइब्रेंट उत्तराखंड’ का नारा आखिर किसके लिए है?
अगर कुमाऊं “मुख्यमंत्री का इलाका” होकर भी उपेक्षित है, तो बाकी पहाड़ों का हाल कल्पना से भी भयावह है।

राज्य में विकास का संतुलन बिगड़ चुका है, और इससे एकता नहीं, असंतोष जन्म ले रहा है।

3. लोकायुक्त गायब, भ्रष्टाचार हाजिर……….।

उत्तराखंड की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि 2013 से आज तक राज्य में लोकायुक्त नियुक्त ही नहीं हुआ।
यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कानूनी पहरेदार नहीं!
हाईकोर्ट के आदेश, सरकार के हलफनामे—सब धूल फांक रहे हैं।
इस बीच, लोकायुक्त कार्यालय पर ₹29 करोड़ खर्च हो चुके हैं—बिना किसी जांच, बिना किसी कार्रवाई के!
यही वजह है कि स्वास्थ्य बजट “बहीखातों में मोटा, अस्पतालों में खोखला” नजर आता है।
धामी सरकार की यह चुप्पी भ्रष्टाचार की साझेदारी नहीं तो और क्या है?

4. केंद्र की भूमिका: पैसा भेजना काफी नहीं, जवाबदेही जरूरी……..।

केंद्र सरकार हर साल उत्तराखंड को अरबों की ग्रांट देती है—NHM, PM-ABHIM, 15वां वित्त आयोग, विशेष सहायता योजनाएं।
लेकिन जब राज्य में सिस्टम ही सड़ा हो, तो पैसा मरीज तक पहुंचने से पहले ही ‘खर्च’ हो जाता है।
सवाल यह भी है कि,
जब केंद्र को पता है कि राज्य लोकायुक्त विहीन है, तो मॉनिटरिंग और जवाबदेही की व्यवस्था क्यों नहीं की गई?
उत्तराखंड को फंड देना आसान है, पर उसके सही इस्तेमाल पर चुप रहना अपराध है।

जनता ही असली लोकायुक्त है…………..।

चौखुटिया आंदोलन आज एक चेतावनी बन चुका है।
यह आंदोलन सरकार के खिलाफ नहीं, जनजीवन के पक्ष में है।
जब जनता सड़क पर उतरती है, तो इसका मतलब होता है कि शासन ने सुनना बंद कर दिया है।
धामी सरकार को अब जवाब देना ही होगा।
लोकायुक्त कब बनेगा?
स्वास्थ्य बजट का ऑडिट कब होगा?
और पहाड़ों की माताओं की पुकार आखिर कब सुनी जाएगी?

अगर अब भी सरकार नहीं जागी, तो चौखुटिया की यह चिंगारी आने वाले समय में पूरे उत्तराखंड का जनांदोलन बन जाएगी।
क्योंकि जब जनता सवाल पूछना सीख जाती है, तो ‘लोकायुक्त’ की जरूरत नहीं पड़ती, वो खुद न्याय बन जाती है।

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