उत्तराखंड में लोकायुक्त की नियुक्ति पर सन्नाटा: धामी सरकार की ‘सुस्ती’ या भ्रष्टाचार पर ‘चुप्पी की साजिश’?

ब्यूरों रिपोर्ट
देहरादून, 22 अक्टूबर 2025।
उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार विकास, पारदर्शिता और “जीरो टॉलरेंस ऑन करप्शन” के दावे तो खूब करती है, लेकिन जब सवाल लोकायुक्त की नियुक्ति का आता है, तो यह सरकार बार-बार बैकफुट पर दिखती है।
2013 से खाली पड़ा लोकायुक्त का पद आज भी अधर में लटका है, जबकि राज्य में भ्रष्टाचार के एक के बाद एक मामले उजागर हो रहे हैं।
क्या यह सिर्फ लापरवाही है या फिर सत्ता के गलियारों में बैठे कुछ लोग नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार की जांच सचमुच शुरू हो?
लोकायुक्त अधिनियम: कागजों पर मजबूत, जमीन पर बेजान……।
2014 में पारित उत्तराखंड लोकायुक्त अधिनियम भ्रष्टाचार, कुप्रशासन और सत्ता के दुरुपयोग की स्वतंत्र जांच के लिए बनाया गया था। इस अधिनियम के तहत मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक और वरिष्ठ अधिकारी तक लोकायुक्त की जांच के दायरे में आते हैं।
लेकिन 11 साल बाद भी यह संस्था नाम की लोकायुक्त है, काम की नहीं।
पूर्व लोकायुक्त न्यायमूर्ति एम.एम. घिल्डियाल का कार्यकाल 2013 में खत्म हुआ, तब से यह कुर्सी खाली है।
हर साल सरकार 2–3 करोड़ रुपये लोकायुक्त कार्यालय के रखरखाव पर खर्च कर रही है, जबकि जांच के नाम पर नतीजा शून्य है।
नैनीताल हाईकोर्ट में दायर जनहित याचिका में याचिकाकर्ता रविशंकर जोशी ने कहा था कि,
“सरकार जनता का पैसा बर्बाद कर रही है, जबकि कर्नाटक और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में लोकायुक्त भ्रष्टाचार पर सक्रियता से प्रहार कर रहे हैं।”
कोर्ट की लताड़ भी नहीं जगा पाई सरकार…….।
2023 में नैनीताल हाईकोर्ट ने सरकार को तीन महीने में नियुक्ति करने का आदेश दिया था।
फिर फरवरी 2025 में मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने सख्त नाराज़गी जताई और मुख्य सचिव से हलफनामा मांगा।
मार्च में सरकार ने खानापूर्ति करते हुए “सर्च कमेटी” बनाने की घोषणा की,
लेकिन पहली बैठक के बाद सबकुछ ठंडे बस्ते में चला गया।
अक्टूबर 2025 तक भी कोई प्रगति नहीं हुई।
क्या मुख्यमंत्री धामी वाकई इतने व्यस्त हैं कि भ्रष्टाचार पर रोक लगाने वाली संस्था को ही भूल गए?
भ्रष्टाचार के बढ़ते कांड और ‘लोकायुक्त की कमी’…..।
लोकायुक्त की अनुपस्थिति में सरकारी एजेंसियां सीधे सत्ता के इशारे पर काम करने को मजबूर हैं। कोई भी जांच बिना सरकार की मंजूरी के शुरू नहीं हो पाती।
कुछ ताज़े उदाहरण:
उत्तराखंड पावर कॉर्पोरेशन घोटाला — एमडी अनिल यादव के खिलाफ असंगत संपत्ति का मामला लंबित है, फिर भी उन्हें दो साल का एक्सटेंशन मिल गया।
कांग्रेस नेता सूर्यकांत धस्माना ने कहा, “मुख्यमंत्री ऊर्जा विभाग संभालते हैं, तो बिना उनकी मंजूरी यह संभव कैसे?”
भर्ती घोटाले (UKSSSC और UKPSC) — भर्ती परीक्षाओं में बड़े पैमाने पर अनियमितताएं सामने आईं, लेकिन जिम्मेदारों पर ठोस कार्रवाई नहीं हुई।
भाजपा ने 2017 के घोषणापत्र में लोकायुक्त को “भ्रष्टाचार विरोधी हथियार” बताया था, लेकिन वादा हवा हो गया।
पुराने मामले — 2016 में आरटीआई से खुलासा हुआ कि 640 फाइलें लोकायुक्त कार्यालय में लंबित हैं। जनता का करोड़ों रुपया खर्च हुआ, परिणाम नहीं।
नतीजा:
भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है, और पारदर्शिता पर सरकार की चुप्पी सबकुछ बयां कर रही है।
राजनीतिक वादे: सत्ता में आते ही सब भुला दिया…..।
2017 में भाजपा ने वादा किया था कि,
“सत्ता में आने के 100 दिन में लोकायुक्त नियुक्त करेंगे।”
2022 के चुनावों में वही वादा फिर दोहराया गया, लेकिन 2025 तक नतीजा वही “शून्य”।
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने तीखा तंज कसा –
“धामी सरकार लोकायुक्त से डरती है, क्योंकि वह उनकी कमजोर नस पर हाथ रखता है।”
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट ने 2022 में कहा था
“हम लोकायुक्त के पक्ष में हैं।”
पर आज जनता पूछ रही है — “कब तक सिर्फ बयानबाज़ी?”
क्या यह सिर्फ देरी नहीं, बल्कि एक सोची-समझी साजिश है?…….
विश्लेषक मानते हैं कि यह राजनीतिक ‘सुरक्षा कवच’ की रणनीति हो सकती है।
केंद्र में लोकपाल की नियुक्ति में भी वर्षों की देरी हुई थी,
पर उत्तराखंड अब उन राज्यों में शामिल है जहां ‘लोकायुक्त’ शब्द सिर्फ किताबों में बचा है।
क्या धामी सरकार अपने ही अफसरों और मंत्रियों की “स्किन बचाने” के लिए लोकतंत्र के इस प्रहरी को कमजोर कर रही है?
जनता की पुकार: अब जवाबदेही तय करो…….।
उत्तराखंड की जनता अब सवाल पूछ रही है कि,
“कब तक भ्रष्टाचार के खिलाफ सिर्फ भाषण होंगे?”
भर्तियों में घोटाले, अफसरों की मनमानी, और सरकारी फाइलों में गुम होती जांच- सब इस बात का सबूत हैं कि लोकायुक्त की गैर-मौजूदगी ने व्यवस्था को पंगु बना दिया है।
हाईकोर्ट पहले ही कह चुका है कि,
“लोकायुक्त नियुक्ति में देरी अस्वीकार्य है।”
देवभूमि को ‘भ्रष्टभूमि’ बनने से बचाइए…..।
मुख्यमंत्री धामी से सीधी अपील कि,
लोकायुक्त की नियुक्ति को राजनीतिक एजेंडा नहीं, बल्कि राज्य की गरिमा बनाइए।
चयन समिति की बैठकें कीजिए, निष्पक्ष व्यक्ति चुनिए और जनता का भरोसा लौटाइए।
वरना, जनता का गुस्सा 2027 के विधानसभा चुनावों में आपकी रिपोर्ट कार्ड पर साफ दिखाई देगा।
उत्तराखंड देवभूमि है।
उसे भ्रष्टाचार की भेंट मत चढ़ने दीजिए।
अब समय है जागने का, अब समय है जवाबदेही निभाने का।