राहुल गांधी की ‘गुप्त यात्राएँ’, सुरक्षा, पारदर्शिता और राजनीति का संगम…….।

ब्यूरों रिपोर्ट।
भारतीय राजनीति में जब भी पारदर्शिता की बात उठती है, तो यह सवाल सबसे पहले उन नेताओं पर खड़ा होता है जो सत्ता में आने का दावा करते हैं। हाल के दिनों में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की विदेश यात्राएँ इसी बहस के केंद्र में रही हैं। मामला महज़ यात्राओं का नहीं, बल्कि उनकी गोपनीयता, सुरक्षा एजेंसियों की चिंता और जनता के विश्वास से जुड़ा है।
सुरक्षा एजेंसियों की आपत्ति……..।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, राहुल गांधी बिना पूर्व सूचना दिए विदेश यात्राओं पर निकल जाते हैं। केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF), जिन्हें उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई है, ने इस पर गंभीर सवाल उठाए। सुरक्षा प्रोटोकॉल कहता है कि SPG या CRPF को पहले से यात्रा की जानकारी मिलनी चाहिए ताकि सुरक्षा चक्र व्यवस्थित हो सके। लेकिन राहुल की अचानक और ‘गुप्त’ विदेश यात्राएँ सुरक्षा व्यवस्था को असहज स्थिति में डाल देती हैं।
क्या यह लापरवाही है या जानबूझकर बनाई गई रणनीति? यह सवाल हर जागरूक नागरिक के मन में उठना लाजिमी है।
“दो टूक” में चौंकाने वाले खुलासे……..।
दूरदर्शन के कार्यक्रम दो टूक में वरिष्ठ पत्रकार अशोक श्रीवास्तव ने ऐसे कई उदाहरणों और तथ्यों का हवाला दिया, जिन्होंने बहस को और भी गंभीर बना दिया। उनके अनुसार, जिन यात्राओं का विवरण सार्वजनिक हुआ है, वे बेहद चौंकाने वाले हैं।
कुछ यात्राएँ संवेदनशील अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रमों के दौरान हुईं।
कुछ मुलाक़ातें और ठिकाने आज तक सवालों के घेरे में हैं।
और सबसे अहम इन यात्राओं की आधिकारिक पुष्टि या खंडन भी कांग्रेस पार्टी की ओर से स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया।
पारदर्शिता पर प्रश्नचिन्ह……..
किसी भी लोकतंत्र में विपक्षी नेता का विदेश जाना असामान्य बात नहीं है। लेकिन अगर ये यात्राएँ गुप्त हों, बिना आधिकारिक सूचना के हों और सुरक्षा एजेंसियों को अंधेरे में रखकर की जाएँ, तो यह केवल सुरक्षा का मुद्दा नहीं, बल्कि जनता के विश्वास का भी सवाल बन जाता है।
जनता को जानने का अधिकार है कि उनका नेता कहाँ और क्यों गया।
विदेशों में की गई मुलाक़ातें और गतिविधियाँ देश की राजनीति और कूटनीति को सीधे प्रभावित करती हैं।
गुप्तता से बचने के बजाय खुलापन और पारदर्शिता विपक्ष की विश्वसनीयता को मजबूत कर सकता है।
राजनीतिक मायने……..।
राहुल गांधी पहले ही भाजपा और उनके विरोधियों के निशाने पर रहते हैं। उनकी हर गतिविधि पर सवाल उठते हैं। ऐसे में उनकी ‘गुप्त विदेशी यात्राएँ’ विपक्ष को ही नहीं, बल्कि उनके समर्थकों को भी असहज कर रही हैं।
क्या ये यात्राएँ निजी हैं या राजनीतिक?
क्या इनमें किसी अंतरराष्ट्रीय लॉबी से मुलाक़ात होती है?
या फिर यह केवल छुट्टियाँ हैं जिन पर अनावश्यक विवाद खड़ा किया जाता है?
जब तक कांग्रेस या राहुल खुद स्पष्ट जवाब नहीं देते, तब तक ये सवाल और भी तीखे होते जाएंगे।
लोकतंत्र में पारदर्शिता केवल सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि विपक्ष की भी उतनी ही बड़ी जवाबदेही है। राहुल गांधी का विदेश जाना समस्या नहीं, लेकिन उनका “बिना सूचना” और “गुप्त यात्राओं” पर निकल जाना निश्चित ही सवाल खड़ा करता है।
CRPF की आपत्ति को हल्के में नहीं लिया जा सकता और दो टूक में रखे गए तथ्य इस बहस को और भी गंभीर बना देते हैं। अगर राहुल गांधी सचमुच जनता का विश्वास जीतना चाहते हैं, तो उन्हें इन यात्राओं के रहस्यों से पर्दा हटाना ही होगा।