आपदा पर सरकार की “लिपापोती”, उत्तराखंड के प्रभावित परिवारों की अनसुनी पीड़ा……।

ब्यूरों रिपोर्ट, विक्रम सिंह।
उत्तराखंड में हर साल बरसात के मौसम के साथ आपदा का प्रकोप लौट आता है, और इस बार भी तस्वीर अलग नहीं रही। भारी बारिश ने त्यणी क्षेत्र पंचायत प्यूनल के ग्राम डेरसा, चोरी और प्यूनल में तबाही मचाई। खेतों में खड़ी फसलें बह गईं, सेब के बगीचे जड़ों से उजड़ गए और कई मकान क्षतिग्रस्त होकर परिवारों को बेघर कर गए। जिन आशियानों में कभी उम्मीदें बसती थीं, अब वहां सिर्फ ढही हुई दीवारें और मलबा नजर आता है।
लेकिन सबसे बड़ा आघात प्राकृतिक आपदा से नहीं, बल्कि सरकार की “संवेदनहीनता” से मिल रहा है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सरकार प्रभावित परिवारों को ऐसी राहत राशि दे रही है, जिसे देख कोई भी कह सकता है कि यह मुआवज़ा नहीं, बल्कि पीड़ितों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है।
आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त मकान के लिए मात्र ₹8,500।
पूरी तरह क्षतिग्रस्त मकान के लिए सिर्फ ₹1,30,000।
फसल और बगीचों के नुकसान पर प्रति हेक्टेयर ₹6,500 और प्रति बीघा ₹700।
सोचिए, लाखों के नुकसान का सामना कर चुके किसान और परिवार आखिर इतने पैसों से कैसे अपनी जिंदगी को दोबारा पटरी पर ला पाएंगे?
तहसील प्रशासन ने औपचारिक दौरे किए, रिपोर्ट तैयार कर ली, और राहत बांटने की कागजी प्रक्रिया पूरी कर ली। लेकिन असली सवाल जस का तस खड़ा है। आखिर कब तक उत्तराखंड के लोगों को आपदा राहत के नाम पर सिर्फ औपचारिकता और खोखले नियमों से बहलाया जाएगा?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आपदा राहत के लिए 1200 करोड़ का पैकेज घोषित किया है। कागजों में यह राशि बड़ी दिखती है, लेकिन क्या वाकई यह पैसा उन असली पीड़ितों तक पहुंचेगा? या फिर यह भी नियमों और प्रक्रियाओं की भेंट चढ़कर सिर्फ फाइलों में खर्च दिखा दिया जाएगा?
उत्तराखंड के आपदा प्रभावितों की यह हालत साफ इशारा करती है कि हमारी राहत व्यवस्था जमीनी हकीकत से बहुत दूर है। आपदा सिर्फ दीवारें और खेत नहीं गिराती, यह लोगों की उम्मीदें, भविष्य और जीवन का भरोसा भी तोड़ देती है। ऐसे में जब सरकार खुद संवेदनहीन नियमों के सहारे पीड़ितों की उपेक्षा करे, तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर यह सरकार किसके लिए है?
आज जरूरत है कि राज्य सरकार तुरंत अपने राहत नियमों की समीक्षा करे और वास्तविक नुकसान के आधार पर मुआवज़ा तय करे। राहत राशि इतनी होनी चाहिए कि परिवार फिर से खड़ा हो सके, न कि उसे भिखारी समझकर कुछ सिक्के थमा दिए जाएं।
उत्तराखंड की जनता यह सवाल जरूर पूछेगी कि,
जब दुख की घड़ी में भी सरकार उनके साथ खड़ी नहीं है, तो फिर यह सरकार किसके लिए है।