उत्तराखंड

हनोल मंदिर समिति विवाद: आस्था, परंपरा और प्रतिनिधित्व का सवाल…..।

ब्यूरो रिपोर्ट, देहरादून।

हनोल का महासू देवता मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि जौनसार-बावर, बंगाण, यमुना घाटी और हिमाचल की जनता की सामूहिक पहचान और सांस्कृतिक धरोहर है। यह मंदिर सदियों से धार्मिक लोकतंत्र और सामाजिक साझेदारी का प्रतीक रहा है।

परंपरा और नौ कारिंदों की भूमिका……।

महासू देवता की परंपरा में बजीर, सदर स्याणा, पुजारी, राजगुरु, पुरोहित, ठाणी, भंडारी, बाजगी और पिशनारे जैसे नौ कारिंदों की व्यवस्था रही है। ये केवल धार्मिक कर्मकांडों से जुड़े पद नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक भागीदारी और जिम्मेदारी के प्रतीक रहे हैं।

समिति का विवादित निर्णय……।

हाल ही में (देवलाड़ी) मंदिर प्रबंधन समिति की बैठक में लिए गए निर्णयों ने विवाद खड़ा कर दिया है।

समिति के विस्तारीकरण में जौनसार की 28 खतों की उपेक्षा की गई।

तय सदस्यता शुल्क इतना ऊंचा रखा गया है कि गरीब श्रद्धालु समिति से जुड़ने में सक्षम नहीं रह जाएंगे।

स्थानीय लोगों का कहना है कि यह निर्णय मंदिर की सामूहिक और समावेशी परंपरा के खिलाफ है।

आस्था बनाम आर्थिक बोझ…….।

लोक पंचायत संगठन ने स्पष्ट किया है कि समिति की आजीवन सदस्यता 1100 रुपये और सामान्य सदस्यता तीन वर्ष के लिए केवल 100 रुपये रखी जानी चाहिए। यह तर्क इसलिए भी मजबूत है कि मंदिर किसी एक वर्ग या आर्थिक रूप से सक्षम समूह का नहीं, बल्कि सभी का है। ऊंचा शुल्क आस्था को आर्थिक बोझ में बदल देगा।

प्रतिनिधित्व का संकट……।

मंदिर समिति का नया ढांचा जौनसार की 28 खतों को नज़रअंदाज करता है। इससे यह संदेश जाता है कि मंदिर प्रबंधन पर कुछ गिने-चुने लोगों का एकाधिकार कायम हो रहा है। यह स्थिति उस परंपरा के खिलाफ है, जिसमें हर खत, हर वर्ग और हर कारिंदे की भूमिका बराबरी से रही है।

प्रशासन और समिति की जिम्मेदारी…..।

यह विवाद केवल सदस्यता शुल्क या प्रतिनिधित्व का नहीं, बल्कि धार्मिक लोकतंत्र और परंपरागत अधिकारों की रक्षा का है। जिला प्रशासन और मंदिर समिति की जिम्मेदारी है कि वे सभी पक्षों को साथ लेकर निर्णय लें। अन्यथा यह विवाद श्रद्धालुओं की आस्था को गहरा आघात पहुंचा सकता है।

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