बंग्लादेश मे बबाल और उसके पीछे काम करने वाली शक्तियां।
रिपोर्ट साभार: सुमन्त विद्वन्स।
कुछ वर्षों पहले तक यह चलन था कि खुद को बहुत बुद्धिमान या समझदार दिखाने के लिए लोग अपने हाथों में कोई अंग्रेजी अखबार या पत्रिका पकड़ लेते थे या अंग्रेजी में दो-चार सही-गलत लाइनें बोल देते थे और कुछ न समझ पाने के कारण लोग उन्हें बुद्धिमान समझ बैठते थे।
आजकल चलन बदल गया है।
अब खुद को बुद्धिमान साबित करना हो और लोगों पर इम्प्रेशन जमाना हो, तो एक सरल उपाय बताता हूं। किसी भी मुद्दे पर कुछ भी दो-चार लाइनें घुमा-फिराकर लिख दीजिए और साथ में डीप स्टेट, एजेंडा, कूटनीति जैसे एक-दो शब्द उसमें जोड़ दीजिए। चाहे आपकी बात का कोई सिर-पैर न हो और चाहे डीप स्टेट जैसे शब्दों का मतलब आपको स्वयं भी न पता हो, लेकिन कुछ लोग तो आपको बुद्धिमान और विशेषज्ञ मान ही लेंगे।
बांग्लादेश में जो हुआ, उसका कारण समझाने वाली ऐसी ही कुछ पोस्ट्स मुझे भी दिखाई दीं लेकिन उनसे मेरी समझ में कुछ नहीं आया क्योंकि ऐसी अधिकांश पोस्ट्स में केवल डीप स्टेट, कूटनीति, समझदारी, खतरा आदि जैसे शब्दों का तड़का लगा हुआ था, पर उपयोगी बातें बहुत ज्यादा नहीं थीं। मैं यह मानकर चल रहा हूं कि मेरे जैसी स्थिति वाले और लोग भी होंगे, जो इस विषय को समझना चाहते हैं, पर समझ नहीं पा रहे हैं। इसलिए सबकी सुविधा के लिए अब मैं स्वयं ही इस विषय पर थोड़ा विस्तार से यह पोस्ट लिख रहा हूं।
बांग्लादेश में कल जो हुआ, उसके कई संभावित कारण हैं और मुझे नहीं लगता कि यह केवल कुछ हफ्तों या महीनों के आन्दोलन का परिणाम है। मैं चाहता हूं कि आप पूरे विषय को ठीक से समझ पाएं, इसलिए मैं आपको इतिहास में थोड़ा पीछे ले जाऊंगा।
1947 में जब पाकिस्तान बना, तो आधा पाकिस्तान भारत के पश्चिम में था (जो आज का पाकिस्तान है) और आधा पूर्व में था (जो आज का बांग्लादेश है)। पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में उसी समय से किसी न किसी बात को लेकर झगड़े चलते रहते थे। बांग्ला और उर्दू भाषा को लेकर होने वाला झगड़ा इसमें सबसे बड़ा मुद्दा था। पूर्वी पाकिस्तान की जनसंख्या अधिक थी और वहां की मुख्य भाषा बांग्ला थी। लेकिन जिन्ना ने घोषणा कर दी थी कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा केवल एक ही रहेगी और वह केवल उर्दू ही होगी। इसके खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में आन्दोलन शुरू हुआ और फिर अन्य मुद्दों को लेकर वह बढ़ता ही गया। पूर्वी पाकिस्तान का यह आन्दोलन शेख मुजीबुर्रमान के नेतृत्व में चल रहा था।
1970 के चुनाव में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी अवामी लीग को 300 में से 167 सीटों के साथ बहुमत मिला। लेकिन पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल याह्या खान ने बंगालियों को सत्ता देने से इनकार कर दिया। इससे नाराज होकर मुजीबुर्रहमान ने पाकिस्तान से अलग होने की घोषणा कर दी। मार्च 1971 में मुजीबुर्रहमान की ओर से यह घोषणा बांग्लादेश सेना के मेजर जियाउर्रहमान ने की थी।
इसके बाद अगले कुछ माह तक भारत की सहायता से बांग्लादेश की स्वतंत्रता का युद्ध चला, जिसके कारण 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध भी हुआ और उसके परिणामस्वरूप दिसंबर 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए और बांग्लादेश के नाम से एक नया देश अस्तित्व में आया। मुजीबुर्रहमान बांग्लादेश के प्रथम प्रधानमंत्री बने आज जिया उर रहमान पहले बांग्लादेश सेना के ब्रिगेड कमांडर और फिर लेफ्टिनेंट जनरल बने।
लेकिन बात यहां खत्म नहीं होने वाली भी और हुई भी नहीं।
जिस तरह पूर्वी पाकिस्तान में ऐसे लोग थे जो पाकिस्तान को तोड़कर अलग बांग्लादेश पाना चाहते थे, उसी तरह कई ऐसे लोग भी थे, जो पाकिस्तान को अखंड बनाए रखना चाहते थे। इन दोनों पक्षों के बीच भी आपसी झगड़े चलते रहते थे, जो बांग्लादेश बनने के बाद भी जारी रहे। पाकिस्तान से सहानुभूति रखने वाले या पाकिस्तान के पक्ष में काम करने वाले लोग बांग्लादेश में तब भी रहे और आज भी हैं।
जब नया देश बन गया और सत्ता मिल गई, तो विवाद भी शुरू हुए। सेना व सरकार के बीच टकराव भी होने लगा और 15 अगस्त 1975 की रात में बांग्लादेश सेना के कुछ लोगों ने अपने ही प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्रहमान के घर में घुसकर उनकी व परिवारजनों की हत्या कर दी। केवल उनकी दो बेटियां जीवित बच गईं क्योंकि वे दोनों उस समय जर्मनी में थीं।
इस हत्याकांड के बाद बांग्लादेश की सत्ता पर सेना का कब्जा हो गया और देश में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। इस तख्तापलट के बाद जिया उर रहमान बांग्लादेश के सेनाध्यक्ष बनाए गए। लेकिन अब बांग्लादेश की सेना भी कई गुटों में बंट गई थी और उनमें भी आपसी संघर्ष छिड़ गया था। अंततः जिया उर रहमान ने सेना के भीतर अपने विरोधियों को कुचलकर पूरा नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया और 1976 में वे चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बन गए। उसके अगले वर्ष 1977 में उन्होंने स्वयं को बांग्लादेश का राष्ट्रपति घोषित कर दिया।
1978 में रहमान ने बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के नाम से एक नई राजनैतिक पार्टी बनाई। उसी वर्ष रहमान ने देश में राष्ट्रपति चुनाव भी करवाया और स्वयं को विजेता भी घोषित कर दिया। तीन वर्ष बाद 1981 में रहमान ने मुजीबुर्रहमान की बेटी शेख हसीना को बांग्लादेश वापस लौटने की अनुमति भी दे दी।
अपने कार्यकाल में रहमान ने कई ऐसे निर्णय लिए थे, जिनसे बांग्लादेश सेना और बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के लोग (जिन्होंने मुजीबुर्रहमान में नेतृत्व में बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था) दोनों ही नाराज थे। मई 1981 में बांग्लादेश सेना के ही कुछ लोगों ने रहमान की भी हत्या कर दी। इसके बाद जिया उर रहमान की पत्नी बेगम खालिदा जिया बीएनपी की अध्यक्ष बनी और बांग्लादेश की राजनीति में शेख हसीना और खालिदा जिया का संघर्ष शुरू हुआ।
खालिदा जिया 1991 में पहली बार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनी और 1996 तक इस पद पर रही। इसके बाद 1996 से 2001 तक शेख हसीना की सरकार बनी और फिर 2001 से 2006 तक खालिदा जिया पुनः प्रधानमंत्री बनकर वापस लौटी। 2006 में अगला चुनाव होना था, लेकिन हुआ नहीं।
उस समय के बांग्लादेश के संविधान के अनुसार निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए एक अस्थायी सरकार का गठन किया था, जो केवल चुनाव पूरा होने और अगली सरकार बनने तक काम करती थी। लेकिन 2006 में जो अस्थायी सरकार बनी, उसी ने सत्ता पर कब्जा कर लिया और चुनाव टाल दिया। अब देश में दंगे शुरू हो गए और सेना ने नियंत्रण फिर अपने हाथों में ले लिया। भ्रष्टाचार के खिलाफ भी कार्यवाही शुरू हुई और शेख हसीना को भी भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेज दिया गया।
2008 में शेख हसीना जेल से रिहा हुई और उसी वर्ष देश में अगला चुनाव भी हुआ। इसमें फिर एक बार अवामी लीग की जीत हुई और शेख हसीना के 14 पार्टियों वाले गठबंधन को 299 में से 230 सीटें मिलीं। इसके बाद जनवरी 2009 में शेख हसीना दुबारा प्रधानमंत्री बनी। इसके बाद 2014 के चुनाव में भी अवामी लीग ही जीती। बीएनपी ने इस चुनाव का बहिष्कार किया।
जब 1971 में बांग्लादेश बना, तो मुजीबुर्रहमान ने सरकारी नौकरियों में कुछ सीटें बांग्लादेश के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए आरक्षित कर दी। इसके अलावा कुछ सीटें महिलाओं, कुछ अल्पसंख्यकों, कुछ सीटें पिछड़े जिलों के लोगों और कुछ विकलांगों के लिए भी आरक्षित हैं। इस प्रकार सब मिलाकर 56% सीटें आरक्षित हैं।
स्वतंत्रता सेनानियों को मिलने वाले आरक्षण का नियम बदलकर 1997 में उनके बच्चों को भी इस आरक्षण के दायरे में शामिल कर दिया गया। 2010 में उनके नाती-पोतों को भी इस आरक्षण में शामिल कर लिया गया।
इस 30% आरक्षण को हटाने की एक याचिका न्यायालय में दायर हुई थी। मार्च 2018 में हाईकोर्ट ने यह याचिका खारिज कर दी। प्रधानमंत्री शेख हसीना ने भी कह दिया कि आरक्षण जारी रहेगा। इसके खिलाफ छात्रों ने आन्दोलन शुरू कर दिया। तब हसीना ने सरकारी नौकरियों से आरक्षण को पूरी तरह हटा दे की घोषणा कर दी। छात्र इससे भी नाराज हो गए क्योंकि वे आरक्षण नहीं हटाना चाहते थे बल्कि केवल स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों को मिलने वाला आरक्षण हटाना चाहते थे। आरक्षण को पूरी तरह हटा देने का यह आदेश 2020 में लागू हुआ।
2018 में ही खालिदा जिया पर भ्रष्टाचार के आरोप में मुकदमा चला और कुछ 36 मामलों को मिलाकर उन्हें 17 साल की सजा सुनाई गई। उस समय से लेकर कल 5 अगस्त 2024 तक का समय खालिदा जिया ने कभी जेल, कभी अस्पताल और कभी अपने घर में ही नजरबंदी में काटा। अंततः आज राष्ट्रपति के आदेश पर खालिदा जिया को जेल से रिहा किया गया है।
2018 के अंत में बांग्लादेश में अगला चुनाव हुआ और जनवरी 2019 में शेख हसीना चौथी बार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनी। अमरीका और अन्य पश्चिमी देश लगातार यह आरोप लगाते रहे कि शेख हसीना के कार्यकाल में बांग्लादेश में लोकतंत्र समाप्त हो गया है, विपक्षियों को कुचला जा रहा है और देश में निष्पक्ष चुनाव नहीं हो रहे हैं। लेकिन शेख हसीना ने इन सब आरोपों पर कोई ध्यान नहीं दिया।
जब चीन ने विश्व भर में नई सड़कों, रेल लाइनों और बंदरगाहों का जाल बिछाने के लिए अपने बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट की घोषणा की और कई देशों को अपने जाल में फांसा, तो शेख हसीना का बांग्लादेश भी इसमें उलझ गया। श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव आदि कई देश भी इसी तरह चीन के जाल में फंसे हुए हैं।
चीन ने बांग्लादेश में कई रेल लाइनों, सड़कों, बंदरगाहों, बिजली परियोजनाओं आदि के लिए करोड़ों-अरबों डॉलर का कर्ज और अनुदान बांग्लादेश को दिए हैं। इनमें कुछ नौसैनिक बंदरगाह भी हैं।
चीन इस प्रकार की परियोजनाओं के द्वारा भारत को भी चारों ओर से घेर रहा है, इसलिए भारत सरकार इससे चिंतित है। जब चीन ने चटगांव में एक बड़ा बंदरगाह बनाया, तो भारत ने भी बांग्लादेश में एक बंदरगाह बनाने के लिए शेख हसीना की सरकार से एक समझौता कर लिया। फिर जब तीस्ता नदी पर एक बड़े प्रोजेक्ट के लिए चीन की एक कंपनी ने बोली लगाई, तो भारत ने भी उस प्रोजेक्ट के लिए बांग्लादेश सरकार को एक प्रस्ताव भेज दिया। चीन और भारत की इस आपसी खींचतान से बचना बांग्लादेश सरकार के लिए कठिन हो गया क्योंकि वह दोनों ही देशों से दुश्मनी मोल नहीं ले सकती थी।
उधर अमरीका और चीन के बीच भी विश्व पर कब्जे को लेकर शीत युद्ध चल रहा है, इसलिए अमरीका भी चीन का प्रभाव घटाने और अपना प्रभाव बढ़ाने में लगा हुआ है। इसलिए अमरीका भी बांग्लादेश के सेंट मार्टिन द्वीप पर एक बंदरगाह बनाना चाहता है। शेख हसीना की सरकार इस बात के लिए सहमति नहीं दे रही थी।
इस कारण अमरीका ने अपने राजदूत के माध्यम से बांग्लादेश सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया। लेकिन इससे बात नहीं बनी। फिर अमरीका ने खालिदा जिया और अन्य विपक्षी नेताओं को समर्थन देकर उकसाना शुरू किया, लेकिन उससे भी बात नहीं बनी।
शेख हसीना ने भी किसी का नाम लिए बिना यह आरोप लगाया कि गोरों का एक देश उनकी सरकार के खिलाफ काम कर रहा है और बांग्लादेश को तोड़कर अपने प्रभाव वाला एक ईसाई देश बनाने की साजिश चल रही है। किसी देश का नाम नहीं लिया गया था, लेकिन इस आरोप का सीधा अर्थ ये था कि बांग्लादेश, बर्मा और पूर्वोत्तर भारत के मिजोरम, मणिपुर आदि राज्यों के ईसाई बहुल क्षेत्रों को मिलाकर अमरीका एक नया देश बनाना चाहता है, जैसे कुछ वर्षों पहले उसने इंडोनेशिया को तोड़कर पूर्वी तिमोर नामक एक ईसाई देश बनाया था, जहां अब अमरीका के सैन्य अड्डे हैं।
यह बात कितनी सच या झूठ है, यह मैं नहीं कह सकता। लेकिन बर्मा की सहायता के लिए अमरीका ने 2022 में बर्मा एक्ट लागू किया है और पिछले वर्ष भर से मणिपुर में भी जिस प्रकार का हिंसक आन्दोलन चल रहा है, उसको देखकर लगता है कि यह बात सच भी हो सकती है। इसके बावजूद मणिपुर की हिंसा को रोकने और उसकी सुरक्षा के लिए कुछ करने की बजाय मोदी सरकार निष्क्रिय क्यों बैठी रही, ये मेरी समझ के बाहर है।
इस वर्ष जनवरी में फिर एक बार बांग्लादेश में चुनाव हुआ और शेख हसीना फिर प्रधानमंत्री बनी। कुछ समय पहले वे चीन के दौरे पर गई हुई थी। हसीना की सरकार को यह आशा थी कि बांग्लादेश के लिए चीन लगभग 1 अरब डॉलर की सहायता राशि देगा। लेकिन चीन की ओर से केवल दस करोड़ डॉलर का आश्वासन मिला। चीनी राष्ट्रपति ने भी शेख हसीना को ज्यादा महत्व नहीं दिया। इन बातों से नाराज होकर हसीना ने अपना चीन दौरा छोटा कर लिया और जल्दी बांग्लादेश वापस लौट आई।
इधर हाईकोर्ट ने जून 2024 में यह आदेश दिया कि आरक्षण को पुनः लागू किया जाए। उसके जवाब में फिर एक बार आंदोलन शुरू हो गया। फिर जुलाई 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया है आरक्षण रहेगा, लेकिन उसे 56% से घटाकर 7% किया जाए।
शेख हसीना की सरकार और पार्टी के लोगों ने इस आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया। देश में दंगे हुए, पुलिस ने आंसू गैस और गोलियां चलाईं। इसमें सैकड़ों लोग मारे गए या घायल हुए। इससे आन्दोलन और भड़का। सरकार ने आरोप लगाया कि विपक्षी दल इस आंदोलन को बढ़ावा दे रहे हैं और लोगों को उकसा रहे हैं।
अंततः यह आन्दोलन इतना बढ़ा कि उसे संभालना सरकार के लिए असंभव हो गया और सेना के दबाव में शेख हसीना को अपना पद और अपना देश दोनों ही छोड़कर भारत भागना पड़ा। अब उन्होंने ब्रिटेन में शरण मांगी है, लेकिन अभी तक मिली नहीं है। इधर सेना ने देश को चलाने के लिए एक अंतरिम सरकार की घोषणा कर दी है और राष्ट्रपति के आदेश से खालिदा जिया को रिहा भी कर दिया है।शेख हसीना के बेटे ने भी एक बयान जारी करके कह दिया कि हसीना अब राजनीति से संन्यास ले रही है।
आगे क्या होगा, ये तो आगे ही पता चलेगा। लेकिन संभव है कि अब चुनाव के बाद खालिदा जिया प्रधानमंत्री बने और अमरीका को बांग्लादेश में एक बंदरगाह बनाने की छूट मिल जाए। बांग्लादेश में ईसाई जनसंख्या आधे प्रतिशत से भी कम है, इसलिए कोई नया देश बनने की संभावना मुझे तो नहीं लगती। लेकिन राजनीति में असंभव भी कुछ नहीं है। मैं बस इतना चाहता हूं कि भारत के सीमावर्ती राज्यों में इस अलगाववाद को बढ़ावा न मिले और वहां जो समस्याएं अभी भी चल रही हैं, कम से कम उन्हें खत्म करने के लिए मोदी सरकार आवश्यक कदम उठाए। अन्यथा यह न हो जाए कि भारत सरकार बांग्लादेश की सेवा में उलझी रहे और इधर भारत को ही चोट खानी पड़े।