उत्तराखंड

“अंकिता के सवाल, सत्ता की चुप्पी” “बेटी बचाओ या सत्ता बचाओ?”

अंकिता हत्याकांड: अब चुप्पी नहीं, जवाबदेही चाहिए मोदी सरकार से लेकर उत्तराखंड भाजपा तक….।

अंकिता भण्डारी सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का आईना है जो ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे तो लगाती है, लेकिन जब वही बेटी सत्ता के करीबियों के सामने ‘ना’ कहती है, तो उसे मिटा देने में देर नहीं लगती।

पिछले तीन दिनों से उत्तराखंड ही नहीं, पूरा देश देख रहा है कि किस तरह एक हत्याकांड ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की नैतिकता, नीयत और नीतियों को कठघरे में खड़ा कर दिया है।

उर्मिला सनावर के आरोप, क्या ये सिर्फ़ बयान हैं या साजिश की परतें?……..।

पूर्व विधायक सुरेश राठौर की पत्नी उर्मिला सनावर द्वारा लगाए गए आरोप बेहद गंभीर हैं। उनका यह कहना कि

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र भट्ट ने स्वयं सुरेश राठौर पर मुकदमा दर्ज कराने की सलाह दी,

और उन्हें “सुरक्षित सीट” से चुनाव लड़ाने का लालच दिया गया,

यह सिर्फ़ एक पारिवारिक विवाद नहीं है। यह सत्ता के भीतर चल रही उस मैनेजमेंट पॉलिटिक्स की ओर इशारा करता है, जिसमें सच्चाई को दबाने और गवाहों को साधने की संस्कृति पनपती है।

सवाल साफ़ है।
क्या भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व इन आरोपों की स्वतंत्र जांच कराएगा, या फिर प्रदेश स्तर पर ही मामले को रफा-दफा कर दिया जाएगा?

‘बेटी बचाओ’ का नारा और उत्तराखंड भाजपा की हकीकत….

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश से बेटी के सम्मान की बात करते हैं, लेकिन उत्तराखंड में भाजपा के नेता उसी नारे को अपने आचरण से रोज़ कुचलते नज़र आ रहे हैं।

जिस तरह से

अंकिता केस में पार्टी के प्रदेश प्रभारी का नाम खुलेआम लिया जा रहा है,

और प्रदेश अध्यक्ष उनसें सवाल पूछने की बजाय दलित कार्ड खेलने में जुटे हैं,

यह साफ़ करता है कि भाजपा के लिए न्याय नहीं, सिर्फ़ राजनीतिक बचाव प्राथमिकता है।

अगर कोई नेता दलित है, तो क्या वह जांच और सवालों से ऊपर हो जाता है?

जाति ढाल नहीं हो सकती, न कानून से, न नैतिकता से।

नौकरशाही का राज और मुख्यमंत्री की असहाय चुप्पी…….।

उत्तराखंड में आज हालात ऐसे हैं कि,

बिना रिश्वत कोई काम नहीं होता,

नौकरशाही सरकार से ज़्यादा ताकतवर हो चुकी है,
और मुख्यमंत्री दिल्ली दरबार में कुर्सी बचाने में व्यस्त हैं।

अंकिता हत्याकांड इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है। जहाँ सत्ता के संरक्षण की आशंका बार-बार सामने आ रही है, लेकिन मुख्यमंत्री की ओर से न तो नैतिक नेतृत्व दिखता है, न राजनीतिक साहस।

अजय सिंह और आरएसएस की चुप्पी: सवाल सिर्फ़ भाजपा से नहीं……।

इस पूरे मामले में संगठन महामंत्री अजय सिंह का नाम भी सामने आ रहा है। ऐसे में सवाल केवल भाजपा से नहीं, बल्कि आरएसएस से भी है।

जिस संगठन का दावा नैतिक अनुशासन और चरित्र निर्माण का है, वह

अब तक अजय सिंह से जवाब तलब क्यों नहीं कर रहा?

तत्काल प्रभाव से उन्हें पद से अलग क्यों नहीं किया गया?

क्या सत्ता के गलियारों में बैठे लोग अब संघ से भी बड़े हो गए हैं?

योग्यता बनाम चाटुकारिता: उत्तराखंड भाजपा का असली संकट…….।

उत्तराखंड भाजपा के पास आज भी मुन्ना सिंह चौहान और विनोद चमोली जैसे गंभीर, जानकार और वैचारिक नेता हैं। गैरसैंण विधानसभा में जब

अवैध घुसपैठ

और उत्तराखंड के 25 वर्षों के सवालों पर बहस हुई,

तब प्रदेश की जनता ने इन नेताओं की क्षमता देखी।

लेकिन पार्टी नेतृत्व को शायद ऐसे नेता रास नहीं आते
क्योंकि अगर योग्य लोग आगे आए, तो चाटुकारों की दुकान बंद हो जाएगी।

कांग्रेस भी कटघरे में: विपक्ष का धर्म कौन निभाएगा?…..

यह सवाल कांग्रेस से भी है।
जब जनता ने आपको विपक्ष का ओहदा सौंपा है, तो सिर्फ़ बयान देकर कर्तव्य पूरा नहीं होता।

एक बेटी की हत्या पर
ब्लॉक
तहसील
जिला
और प्रदेश स्तर तक

सड़क पर उतरकर सरकार की ईंट से ईंट बजाने की ज़िम्मेदारी विपक्ष की होती है।

तो फिर कांग्रेस क्यों चुप है?
क्या विपक्ष भी इस सिस्टम का हिस्सा बन चुका है?

अब मोदी सरकार को जवाब देना होगा……….।

अंकिता भण्डारी हत्याकांड अब केवल उत्तराखंड का मामला नहीं रहा।
यह मोदी सरकार की ‘बेटी बचाओ’ नीति की विश्वसनीयता का सवाल बन चुका है।

अब देश जानना चाहता है कि……

क्या भाजपा अपने ही नेताओं पर निष्पक्ष जांच कराएगी?

क्या दोषियों को राजनीतिक संरक्षण से बाहर निकाला जाएगा?

या फिर एक और बेटी को फाइलों और नारों में दफना दिया जाएगा?

चुप्पी अब अपराध के बराबर है।

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