उत्तराखंड

नये त्यौहारों की होड़ में जौनसार बाऊर के पुराने त्यौहार गुमनामी के कगार पर।

लेखक- फकीरा सिंह चौहान गोरछा

चकराता। भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार जौनसार बावर के संस्कृति में त्योहारों का एक बड़ा महत्व होता है। इन त्योहारों को मनाने के पिछे मुख्ता तीन कारण होते है। *पशुपालन, अन्न की फसल तथा आराध्य देवी देवता*। सर्व विदित है कि जौनसार बावर में पहले पशुपालन बहुत ज्यादा था साल भर में रवि और खरीफ की फसलों का होना भी निश्चित था। प्राकृतिक आपदाओं से फसलो ओर पशुओं की तथा स्वयं की सुरक्षा के लिए हम लोग देवी देवताओं के आशीर्वाद और मान्यताओं पर आस्थावान रहते थे। धीरे-धीरे हमारी मान्यताएं परंपराएं रीति रिवाज एक वृत संस्कृति में सम्मिलित हो गये। ऋतुओं ओर मौसम के आधार पर जब भी फसलो का आगमन तथा समाप्ति होती थी हम लोग अपने खुशियों का सामूहिक रूप से भरपूर इजहार करते थे जिस से धीरे-धीरे मनोरंजन के लिए त्योहारों के रूप में मनाने का प्रचलन प्रारंभ हुआ और हमारी संस्कृति में वर्ष भर में पौराणिक त्योहारों की एक लंबी फे़हरिस्त तैयार हो गई जो कुछ इस प्रकार से है।

*जौंसार बाउर के पुराणे तियार- बार*

1. पुश तियार
2. माघो का आठखोड़ा
3. माघो की पंचमी
4. ढकनाचणो( बाजगीयों/ ढाकीयों का नाच)
5. ध्यांड़ोज
6. शिबराती
7. डाव होलियारनी( पेड़ों की काट छांट)
8. चौईतो की आंठों
9. फुलियात / बुरांसनी
10. बिशु
11. .गनियात
12. देश मौण
13. चोर मौण
14. मंडावणै
15. जागा/ ठहर/ ठारी की पूज
16. शैमियात
17. दकराण/ अशाड़ौ की संगरांद
18. .क्यारको की रूमणी
19. कोदो की नैठांवण
20. पिनयात
21. किमांवणे
22. नुणाई
23. गोगाड़
24. जातरा, (किसी देवता के नाम पर)
25. जागड़ा / देव नाऐण
26. जौखोड़ी
27. चीड़ो मिड़ो / चिड़ियात
28. भादरो की संगरांद
29. पांचौ
30. ओशोजो की आंठों
31. पांईतों
32. गोबडूणै
33. घंसलौणे
34. नई दियाईं/ दियाड़ी
35. ग्यास/ इगास
36. बुढ़ी/ पुराणी/ दियांईं/ दियाड़ी

उपरोक्त त्योहारों को हम लोग बड़ी ही सादगी रूप में मानते थे‌। बेशक उस दौर में कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमारे पास नहीं था लेकिन फिर भी वैदिक वैद्य तथा प्राकृतिक खगोल के आधार पर विशुद्ध खान पान शयन और भोर मे ध्रुव तारा (ब्यांणया राती )तारों के साथ जागने के अभ्यस्ती थे। जिसके वजह से लोग लंबी उम्र जीते थे। सीमित आवश्यकताएं थी लोग-बाग परम संतोषी थे और सीमित आवश्यकताओं में ही अपना गुजारा करते थे‌। संयुक्त परिवार की परंपरा और भाईचारे की भावना लोगों में कूट-कूट कर भरी थी जिससे परिवार की एकता गांव की एकता फिर खत( पटी) की एकता बनी रहती थी।

बदलाव प्रकृति का नहीं मानव प्रवृत्ति का भी नियम है। धीरे-धीरे लोग शिक्षित होने लगे अपने रोजगार के लिए शहरो की तरफ अग्रसर हुए लोगों की इच्छाएं लोगों की आवश्यकता बढ़ने लगी। बिजली पानी सड़के गांव गांव तक पहुंचने लगी और हमारी मूल संस्कृति में भी परिवर्तन दिखने लगे। हमें पता भी नहीं चला कि हमारे पौराणिक त्यौहार कब गुमनामी की कगार पर पहुँच गये और उन गैड़े-मेड़ो के स्थान पर नए त्योहारों मेलो की एक लंबी सूची हमारे सामने खड़ी हो गई जो आज कुछ इस प्रकार से दिखती है।

*नऐ त्यौहार*
1. माघ मिलन मेला
2. जन मिलन मेला
3. आईती-नीति महोत्सव
4. शहिद केसरी चंद मेला
5. कर्मचारी प्रवासी मिलन मेला
6. कर्मचारी गांव वासी मिलन मेला
7. सीआरपीएफ कर्मचारी मंडल मेला
8. पौराणिक संस्कृति महोत्सव
9. जनजाति जन कल्याण मेला
10. सेवावृत कर्मचारी मंडल मेला
11. सेवानिवृत्त कर्मचारी मिलन मेला
12. जौनसार बावर सांस्कृतिक मेला।
13. लाखा मंडल विसू महोत्सव
14. गढ़बैराट महोत्सव
15. कालसी महोत्सव
16. विकास नगर महोत्सव
17. विशाल खेलकूद मेला।
18. जौनसार बावर शिक्षक संघ मेला
19. जौनसार बावर किसान मेला
20. लोक पंचायत सम्मेलन
21. पर्वतीय महोत्सव
22. लखवाड़ दशहरा महोत्सव
23. पिपाया दशहरा महोत्सव
२4. पर्यटक महोत्सव
25. यमुना वैली महोत्सव
26. कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव
27. दशहरा महोत्सव
28. दीपावली महोत्सव
30. शरद कालीन महोत्सव
31. गांव गांव टूर्नामेंट।

आदि आदि ।और भी न जाने कितने नाम है। उपरोक्त में से कोई भी त्यौहार सादगी पूर्ण त्यौहार नहीं है चकाचोंद के त्यौहार है साथ में संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार के अवधारणा को बढा़वा दे रहे है। धन्नाडय प्रवृत्ति से संगठित त्यौहार है। इन त्योहारों में पूरा गांव या पूरा परिवार सम्मिलित नहीं होता है बल्कि कर्मचारी व्यक्ति का परिवार ही सम्मिलित होता है।

अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि इस दोहरी संस्कृति में आखिर आम इंसान जिए तो जिए कैसे। जो संस्कृति के असली मुलक है जिन्होंने गांव में संस्कृति को अब तक जिंदा रखा है वह लोग आज बहुत उपेक्षित है। वह लोग बची कुची संस्कृति को अपने कंधों पर डोह तो रहे हैं परंतु आखिर कब तक। जो लोग रोजगार की दृष्टिकोण से शहरों में पलायन हो चुके हैं वह लोग अपने संस्कृति को जिंदा रखने का दावा तो भरपूर करते हैं‌। तथा, शहरों में मेलों का आयोजन भी करते हैं परंतु समय की व्यस्तता महंगाई की दोहरी मार की व्यथा जताकर पौराणिक त्योहारों को जिंदा रखने में असमर्थ है। जिसके कारण जौनसार बावर में अब केवल बचे-कुचे पुराने त्यौहार ही शेष बचे हैं जो अपनी अंतिम सांसे गिन रहे है। इस विषय पर ठोस विचार करने की आवश्यकता है।

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