“गायब होता एक उजाला: अभिषेक की चुप्पी और राजनीति का अनुत्तरित प्रश्न”।

रिपोर्ट- विक्रम सिंह।
कभी युवाओं की भीड़ के बीच खड़ा एक नाम था — अभिषेक सिंह। उत्तराखंड की राजनीति में एक समय ऐसा भी आया जब इस नौजवान के इर्द-गिर्द उम्मीदों की लहरें उमड़ने लगी थीं। वह सिर्फ एक राजनीतिक वंश का वारिस नहीं था, बल्कि वह एक सोच, एक ऊर्जा और एक नई दिशा का प्रतीक बनता दिख रहा था। उसके चेहरे पर मुस्कान थी, जुबान पर स्पष्टता और आंखों में अपने क्षेत्र के लिए कुछ कर गुजरने का जुनून।
लेकिन आज, जब राजनीति के गलियारों में नए समीकरण बन रहे हैं, एक सवाल लगातार गूंज रहा है — अभिषेक कहां है?
चुप्पी जो गूंज रही है
जिस युवा नेता की रैली में कॉलेज के छात्र, गांव के नौजवान और महिलाएं तक उम्मीद लेकर खड़े होते थे, वो अचानक मंचों से गायब हो गया। न तो किसी विरोध में दिख रहा, न ही किसी समर्थन में। उसकी यह चुप्पी एक रणनीति है या आंतरिक संघर्ष, यह कहना मुश्किल है। मगर यह चुप्पी अब राजनीति से अधिक सामाजिक चर्चा का विषय बन चुकी है।
लोग सवाल करते हैं — “क्या अभिषेक ने हार मान ली? क्या राजनीति की जमीनी सच्चाइयों से वह टूट गया? या फिर यह शांति एक बड़े तूफान की तैयारी है?”
विरासत से आगे की सोच
प्रीतम सिंह जैसा कद्दावर नाम होना एक शक्ति भी है और एक बोझ भी। अभिषेक ने उस विरासत को सिर्फ ढोया नहीं, बल्कि अपने अंदाज़ में आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। वह पुराने सांचे में ढले नेता नहीं थे। उनके पास सोशल मीडिया की समझ थी, युवाओं की भाषा और नीतियों में नयापन था। शायद यही बात पुराने राजनैतिक ढांचों से टकरा गई।
भविष्य की जमीन अब भी खाली है
उत्तराखंड की राजनीति में आज भी एक साफ़, निडर और युवा नेतृत्व की ज़रूरत महसूस की जा रही है। अगर अभिषेक अब लौटते हैं, तो वो सिर्फ एक नेता की वापसी नहीं होगी, बल्कि यह उस उम्मीद की वापसी होगी जो कभी गांव-गांव, गली-गली दौड़ती थी।
राजनीति को ऐसे चेहरों की ज़रूरत है जो ईमानदारी से सोचें, समझदारी से बोलें और जमीनी मुद्दों पर खड़े हों। अभिषेक अब भी अगर सामने आते हैं, तो वह भीड़ नहीं, नेतृत्व देंगे।
अंत में —
राजनीति में विराम लेना कोई अपराध नहीं है, लेकिन अगर आपके भीतर बदलाव की आग हो, तो पीछे हटना जनता से वादा तोड़ने जैसा होता है। अभिषेक को यह समझना होगा कि उनकी चुप्पी अब सिर्फ उनकी नहीं रही — यह जनता की बेचैनी बन गई है।
उत्तराखंड को फिर उस युवा की जरूरत है जो भीड़ में नहीं खोता, बल्कि भीड़ को रास्ता दिखाता है। सवाल अब भी वही है — क्या अभिषेक लौटेंगे?
यदि लौटे, तो यह वापसी सिर्फ एक नेता की नहीं होगी, यह वापसी होगी विश्वास की, उम्मीद की — और शायद एक नये युग की।