डिग्रीधारी दहशत: जब शिक्षा इंसानियत भूल जाए…।

“पहाड़ का सच” विश्लेषण रिपोर्ट…..।
दिल्ली धमाकों ने देश को एक बार फिर झकझोर दिया है। हैरान करने वाली बात यह नहीं कि धमाका हुआ, बल्कि यह है कि इसे अंजाम देने वाले सभी पढ़े-लिखे, डाक्टर पेशे के लोग थे। सवाल यही है कि आखिर इन लोगों को निर्दोषों की जान लेने की प्रेरणा कहाँ से मिली?
कट्टरपंथ की जड़- बचपन की वैचारिक शिक्षा…….।
बचपन किसी भी इंसान की सोच की जड़ बनाता है। अगर उसी दौर में यह सिखाया जाए कि “जो इस्लाम को नहीं मानता, वह काफ़िर है”, या “दुनिया पर निजाम-ए-मुस्तफ़ा का राज होना चाहिए” तो यह विचार धीरे-धीरे धार्मिक कट्टरता की मानसिक बुनियाद बन जाता है।
हर धर्म में शिक्षा का उद्देश्य मानवता और सद्भाव है, लेकिन जब शिक्षण संस्थान इसका विकृत रूप परोसने लगते हैं, तो वही शिक्षा ज़हर बन जाती है।
आधुनिक शिक्षा, पर वैचारिक गुलामी………।
डाक्टर, इंजीनियर, आईटी एक्सपर्ट इन आतंकियों के पास डिग्री तो थी, लेकिन विवेक नहीं।
इससे यह स्पष्ट होता है कि आधुनिक शिक्षा केवल ज्ञान दे सकती है, पर सोच नहीं बदल सकती। जब सोच बचपन में ही ज़हरीले विचारों से भर दी जाए, तो उच्च शिक्षा भी उस ज़हर को निष्क्रिय नहीं कर पाती।
संस्थानों की समीक्षा ज़रूरी………..।
यह कहना उचित नहीं कि हर मदरसा या धार्मिक स्कूल गलत शिक्षा देता है, लेकिन जहाँ धर्म की व्याख्या मानवता और संविधान से काटकर की जाती है, वहाँ से समाज में असंतुलन पैदा होता है।
सरकार को चाहिए कि ऐसे संस्थानों के पाठ्यक्रम और विचारधारा की समीक्षा करे। ताकि धार्मिक शिक्षा मानवता और सहअस्तित्व का संदेश दे, न कि विभाजन और घृणा का।
समाधान की दिशा………।
धार्मिक शिक्षण में संवैधानिक मूल्यों को शामिल किया जाए।
समाज के भीतर से प्रगतिशील आवाज़ों को समर्थन मिले।
सरकार धार्मिक शिक्षा संस्थानों में पारदर्शी निगरानी तंत्र लागू करे।
बच्चों के मन में आस्था के साथ विवेक का विकास हो, न कि अंधभक्ति का।
आतंक का धर्म नहीं होता, पर उसका स्रोत अक्सर विकृत विचारों में होता है।
जब शिक्षा इंसान को सोचने और प्रेम करने की ताकत न दे, तो वही शिक्षा विनाश का औज़ार बन जाती है।
आज जरूरत है कि देश अपनी शिक्षा नीति को इस नजर से भी परखे,
क्या हम डिग्री बाँट रहे हैं या इंसान बना रहे हैं?
