हाईकोर्ट ने फेंकी गेंद आयोग के पाले में, अब कौन निभाएगा संविधान का धर्म?

लेख: विक्रम सिंह।
उत्तराखंड की संवैधानिक राजनीति में एक नया मोड़ आ गया है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों से जुड़ा मामला, जो राज्य के हर नागरिक के लोकतांत्रिक अधिकारों से जुड़ा है, अब चुनाव आयोग के दरवाज़े पर आकर ठहर गया है। नैनीताल हाईकोर्ट ने दोहरी मतदाता सूची के मुद्दे पर चुनाव आयोग की उस याचिका पर कोई स्पष्ट आदेश नहीं दिया जिसमें आयोग ने कोर्ट से दिशा-निर्देश मांगे थे। कोर्ट ने मौखिक टिप्पणी में केवल इतना कहा “आप खुद कानून के अनुसार निर्णय लें।”
इस टिप्पणी ने न सिर्फ चुनाव आयोग की स्वतंत्रता की परीक्षा ले ली है, बल्कि राज्य सरकार, विशेष रूप से मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की भूमिका को भी कटघरे में ला खड़ा किया है।
कोर्ट ने साफ कर दिया- अब संविधान के धर्म का पालन कौन करेगा?…
हाईकोर्ट का यह फैसला एक स्पष्ट संदेश है कि लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने विवेक से काम करें, अदालत हर कदम पर बैसाखी नहीं बन सकती। लेकिन इस स्वतंत्रता के साथ सबसे बड़ी चुनौती अब चुनाव आयोग के सामने है? क्या वह निष्पक्ष, निर्भीक और संविधान सम्मत निर्णय ले पाएगा?
धामी सरकार पर विपक्ष का सीधा निशाना….।
राजनीतिक गलियारों में यह फैसला गूंज उठा है। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल पहले ही यह आरोप लगाते रहे हैं कि उत्तराखंड निर्वाचन आयोग, राज्य सरकार की ‘कठपुतली’ बनकर काम कर रहा है। अब जब कोर्ट ने फैसले की ज़िम्मेदारी आयोग पर ही छोड़ दी है, तो क्या आयोग सरकार के दबाव से ऊपर उठकर फैसला ले पाएगा?
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा ने बयान देते हुए कहा “कोर्ट ने गेंद आयोग के पाले में डाली है, अब असली परीक्षा आयोग की है। अगर आयोग निष्पक्ष होता तो पहले ही कार्रवाई कर चुका होता।”
सरकार की चुप्पी भी सवालों के घेरे में…..।
अब तक मुख्यमंत्री धामी या सरकार के किसी वरिष्ठ मंत्री ने इस मसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। लेकिन यह चुप्पी कहीं न कहीं जनमानस में यह संदेह भी पैदा कर रही है कि कहीं आयोग को खुला मैदान देने का फैसला पहले से तय स्क्रिप्ट का हिस्सा तो नहीं?
इस पूरे घटनाक्रम का सबसे बड़ा असर चुनावी प्रक्रिया पर पड़ेगा। यदि आयोग नियमों को ताक पर रखकर निर्णय करता है तो यह न केवल लोकतंत्र की आत्मा के साथ धोखा होगा, बल्कि चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी स्थायी दाग लग जाएगा।
संवैधानिक धर्म निभाने की घड़ी….।
अब जबकि नैनीताल हाईकोर्ट ने कानून की व्याख्या आयोग के विवेक पर छोड़ दी है, तो सवाल यही है कि क्या आयोग संविधान के धर्म को निभा पाएगा या राजनीतिक प्रभाव में बह जाएगा?
यह केवल एक कानूनी या प्रशासनिक मामला नहीं है। यह राज्य के हर उस नागरिक का सवाल है जो अपने लोकतांत्रिक अधिकार को लेकर सजग है। क्योंकि जब संविधान के रक्षक ही डगमगाएंगे, तो लोकतंत्र की नींव हिलना तय है।
यह मामला अब एक बड़ी लोकतांत्रिक परीक्षा बन चुका है। देखने वाली बात यह होगी कि आयोग संविधान की भावना के अनुरूप फैसले लेता है या नहीं। यदि वह ऐसा नहीं कर पाया, तो यह न सिर्फ आयोग की साख पर धब्बा होगा, बल्कि धामी सरकार की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता पर भी गंभीर प्रश्नचिन्ह लगेंगे।